निरंजन प्रसाद श्रीवास्तव
रांची : आज कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि है। आज ही के दिन चातुर्मास का समापन होता है और सृष्टि के पालननहार विष्णु का चार माह की योगनिद्रा से बाहर आना और शेष-शय्या से उठना बताया जाता है। इस तिथि को लोग भगवान विष्णु की उपासना हेतु व्रत रखते हैं। इसे देव या हरि प्रबोधनी एकादशी और देवोत्थान एकादशी कहा जाता है। लोकभाषा में इसे देवठान या देवउठनी एकादशी कहा जाता है। इसी दिन से सारे शुभ और मांगलिक कार्य शुरू होते हैं। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को विष्णु शयन करने चले जाते हैं। उस दिन भगवान विष्णु का शयनोत्सव मनाया जाता है। कितनी अद्भुत है हमारी संस्कृति!
विष्णु त्रिदेवों में से एक हैं। इनपर सृष्टि की रक्षा का भार है। विष्णु को आद्य देवसममूह में बहुत कम महत्त्व दिया गया है। ऋग्वेद में उनकी स्तुति में केवल चार मन्त्र मिलते हैं। ऋग्वेद में एक स्थल ओर विष्णु को ‘शिपिविष्ट’ कहा गया है, जिसका अर्थ प्रातःकालीन कोमल किरणों से युक्त हो सकता है। ब्राह्मण- ग्रन्थों में इनका महत्त्व अधिक है। विष्णुपुराण में इनके महात्म्य का वर्णन है। वैदिक काल में इन्हें धन, बल और वीर्य का दाता कहा गया है। प्रजापति कश्यप के औरस और अदिति के गर्भ से इनकी उत्पत्ति बतायी जाती है। लक्ष्मी इनकी पत्नी हैं। ये सृष्टि के कल्याण के लिए युग-युग में अवतरित होते हैं। विष्णु के दस अवतार बताए जाते हैं-मत्स्य, कूर्म या कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि। कल्कि भावी-अवतार है, जो अधर्म का पूरी तरह विनाश करके कृतयुग का आरम्भ करेगा।
विष्णु मेघ सदृश श्याम वर्ण के हैं। इनके चतुर्भुज रूप की आराधना की जाती है। इनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म या कमल हैं। विष्णु के शंख का नाम पांचजन्य, चक्र का नाम सुदर्शन, गदा का नाम कौमोदकी, तलवार का नाम नन्दक तथा धनुष का नाम शार्ङ्ग है। वक्ष का चिह्न श्रीवत्स है, मणि कौस्तुभ है तथा वाहन गरुड़ है।
प्रतीक दृष्टि से विष्णु सूर्य के वाचक कहे जा सकते हैं। सूर्य के द्वादश नामों में एक ‘विष्णु’ भी है। शौनक ने ‘विष्णु’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘विश्’ या ‘वैविष’ धातु से बतायी है, जिससे व्याप्ति का अर्थ प्रकट होता है। विष्णुपुराण की उक्ति ‘त्वमेव सृष्ट्वा तमनुप्राविशत्’ भी व्यपति का अर्थ देती है। विष्णु के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त ‘गिरिष्ठा’तथा ‘कुचर:’ शब्दों की व्यंजना को आधार बनाते हुए मैकडॉनेल उन्हें मेघश्रृंगों पर चमकने वाले सूर्य का प्रतीक मानते हैं। विष्णु के ‘उरुगाय’, ‘उरुक्रम’, ‘स्वदृश्’, ‘विभूतपुम्न’ आदि वैदिक विशेषण या संज्ञाएँ उन्हें सूर्य का प्रतीक सिद्ध करती हैं। त्रिविक्रम शब्द, जिसने आगे चलकर विष्णु के वामनावतार के मिथक को जन्म दिया-पृथ्वी, अंतरिक्ष और आकाश में सूर्य की विभिन्न गतियों या दशाओं का वाचक है।
‘विष्णु सहस्रनाम’ श्री हरि विष्णु के एक हजार नामों का स्त्रोत है। श्रीमहाभारत में इसका सबसे लोकप्रिय संस्करण भीष्म और युद्धिष्ठिर के संवाद में उपलब्ध है। पद्मपुराण, मत्स्यपुराण और गरुड़ पुराण में इसके और संस्करण उपलब्ध हैं। इससे यह पता भी चलता है कि संस्कृत कितनी समृद्ध भाषा रही है।
आधुनिक कविता में विष्णु के मानवेतर अवतार-रूपों में ‘मत्स्य’ और ‘कच्छप’ के संदर्भ मिलते हैं, किन्तु वे अप्रस्तुत के रूप में ही लिए गए हैं। प्रसाद का ‘महाकच्छप-सी धरणी’ ऐसा ही प्रयोग है। ‘महामत्स्य का एक चपेटा’ में अवतार रूप का हल्का संकेत है। अज्ञेय की कई कविताओं में मछली के बिम्ब मिलते हैं और प्रायः सर्वत्र उससे अदम्य जिजीविषा का प्रतीकार्थ उभरता है। वामन के तीन डगों में तीनों लोकों को माप लेने के मिथक का प्रयोग पन्त की ‘पर्वत प्रदेश में पावस’ कविताओं में देखा जा सकता है।
काव्यजगत् में, विशेष रूप से भक्तिकाल की सगुन काव्यधारा में, विष्णु के अवतार-रूप राम तथा कृष्ण से संबंधित वृत्त को महत्त्व दिया जाता रहा है। भक्ति काल की कविताएँ अवतारवादी आस्था, भक्ति और दार्शनिक चिंतन की सीमाओं में बंधी रही है। आधुनिक युग में भी इस मनोदृष्टि की कमी नहीं है, लेकिन अधिकतर कवियों की प्रवृत्ति उनके निहितार्थ को रेखांकित करने की ओर रही है। मैथिलीशरण गुप्त का ‘साकेत’, निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’, नरेश मेहता की संशय की रात’ आधुनिक राम-काव्य हैं तो धर्मवीर भारती की ‘कनुप्रिया’ कृष्ण-काव्य।अंत मे विष्णु की दो स्तुतियों का उल्लेख करना चाहूँगा-
शान्ताकारं भुजंगशयन पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णँ शुभांगम्
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्
वंदे विष्णु भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।।
यं ब्रह्मावरुणेंद्ररुद्रमरुतः स्तुवन्ति देवै: स्तवै
वेदै साङ्गपदकर्मोपनिषदैगार्यन्ति यं साम गाः
ध्यानावसस्थितत्दगेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो
यस्तां न विदु सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः।।