Bihar Election : तेज प्रताप यादव के हाथों में आ सकती है लालू विरासत की डोर…..

Sushmita Mukherjee
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Bihar Election : तेज प्रताप यादव ने कहा कि “हमारी हार में भी जनता की जीत छिपी है।” बिहार ने स्पष्ट संदेश दे दिया है कि अब राजनीति परिवारवाद नहीं, बल्कि सूशासन और शिक्षा की होगी।
उन्होंने कहा कि जनता का प्रेम और विश्वास ही उनकी असली जीत है—“चाहे मैं विधायक बनूँ या नहीं, मेरे दरवाज़े जनता के लिए हमेशा खुले रहेंगे।”

तेज प्रताप ने NDA की जीत का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, अमित शाह और धर्मेंद्र प्रधान की रणनीति व मेहनत को दिया। तेज प्रताप के इन्हीं लाइनों के सहारे आगे की कहानी में आगे बढ़ते हैं. ..।

इलेक्शन कैंपेन के दौरान और चुनाव परिणाम आने के बाद कि उनकी बातों को याद करते हैं तो यह बात पूरी तरह समझ में आती है कि तेजप्रताप यादव अद्भुत लय में हैं। चुनाव मैदान में उतरे तो खुलकर उतरे—पूरी ताकत लगाई, पार्टी बनाई, उम्मीदवार खड़े किए और ज़ोर-शोर से प्रचार-प्रसार भी किया। खुद महुआ से उम्मीदवार बने और 35,703 मत हासिल किए, लेकिन फतह नहीं मिली। फिर भी कोई मलाल नहीं- पूरी तरह से निरपेक्ष, जैसे गीता को अपने भीतर जी रहे हों- हार-जीत, सुख-दुख और मान-अपमान से परे। वो कर्मयोग की सर्वश्रेष्ठ अवस्था में हैं-“कार्य करो और फल की चिंता मत करो, सबकुछ परमात्मा के चरणों में अर्पित कर दो।”
कुदरत जब किसी से बड़ा काम लेना चाहती है तो सबसे पहले उसे अकेला कर देती है—मां से, पिता से, भाई से, बहन से और उन सभी चीजों से जो उसे प्रिय होती हैं। घर का बड़ा पुत्र होने के बावजूद उन्हें उनके उत्तराधिकार से वंचित किया गया। राजद की बागडोर उनके छोटे भाई को सौंप दी गई। फिर छोटे भाई के इर्द-गिर्द ऐसे लोग एकत्र होते चले गए जो उनके आंख-कान बनकर रास्ता दिखाने लगे और बड़े भाई के प्रति उनके दिमाग में ज़हर भरने लगे। पार्टी के भीतर तेजप्रताप के खिलाफ साजिशें होने लगीं, उन्हें अपमानित किया जाने लगा।
उनके हावभाव और व्यवहार से साफ पता चलता था कि लालू यादव का असली सियासी उत्तराधिकारी कोई है, तो वह तेजप्रताप यादव ही हैं। इसी की कीमत उन्हें चुकानी पड़ी-उन्हें एक झटके में पार्टी से बाहर कर दिया गया। वे पूर्ण तन्हाई की अवस्था में आ गए। अध्यात्म के प्रति उनकी रुचि बचपन से ही थी; यदि अध्यात्म का सहारा न होता तो शायद वे बुरी तरह से बिखर जाते। पार्टी के अंदर उनके विरोधी और साजिशकर्ता यही चाहते भी थे। पूरे यादव समाज को भाई बताने वाले तेजस्वी यादव ने पार्टी निष्कासन से पहले एक बार भी तेज प्रताप से बात करने की ज़रूरत नहीं समझी। मतलब साफ था—तेजप्रताप को राजद से बाहर करने की साजिश में उनकी भी सहमति थी। शायद उन्हें अपना रास्ता पूरी तरह साफ दिख रहा था।
राजसी प्रवृत्ति चीजों को अलग-अलग करके देखने की होती है। तेजप्रताप बार-बार कहते थे कि वे तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनाएंगे, उनके लिए कृष्ण का काम करेंगे, उनका सारथी बनेंगे। तेजस्वी यादव के इर्द-गिर्द खड़ी लॉबी को यह अहसास था कि तेजस्वी को पूरी तरह अपने नियंत्रण में लेने के लिए तेजप्रताप से उन्हें दूर करना आवश्यक है। बस—चालें चली जाने लगीं, दोनों को अलग करने की। तेजस्वी के भीतर यह राजसी भावना विकसित की गई कि “पपेट” कहे जाने से बचने के लिए उन्हें तेजप्रताप से दूरी बनानी होगी, अपने सियासी व्यक्तित्व को निखारने के लिए यह जरूरी है।
राजद के अंदर पदाधिकारियों के बीच तेजप्रताप की छवि एक “हार्ड लीडर” की थी। उनका मुंहफट और बेबाक स्वभाव कई लोगों को रास नहीं आता था। जातीय आधार पर सक्रिय लॉबियों के लिए भी उनका यह स्वभाव सुविधाजनक नहीं था। पार्टी कार्यक्रमों या सार्वजनिक मंचों पर तेजप्रताप का एक विशेष अंदाज होता था, जिसे आम कार्यकर्ता बेहद पसंद करते थे। उनका कम्युनिकेशन स्किल बहुत शार्प है—लालू यादव की तरह जनता से तुरंत कनेक्ट कर लेते हैं। लेकिन अपने व्यक्तित्व को खुलकर जीने की चाह में तेजस्वी उनसे दूर होते चले गए।
राष्ट्रीय जनता दल की आज की दुर्गति का एक महत्वपूर्ण कारण तेजप्रताप का पार्टी से बाहर किया जाना भी है। वह क्राउड पुलर हैं। जहां खड़े होते हैं वही भीड़ लग जाती है। स्टार प्रचारक के तौर पर उनका बेहतर इस्तेमाल हो सकता था। उनके महत्व को तेजस्वी समझ न सके—या यूं कहें कि साजिशकर्ताओं ने उन्हें समझने ही नहीं दिया गया। बहनों ने भी परिवार के नाम पर सियासी लाभ तो खूब लिया-सांसद बनीं, रूतबा बनाया-लेकिन दोनों भाइयों के बीच की गलतफहमियों को दूर करने की ईमानदार कोशिश कभी नहीं की। इसका खामियाजा आज राजद को भुगतना पड़ रहा है—बिहार की जनता ने जड़ों पर ही कुल्हाड़ी चला दी है।
तेजप्रताप गीता की कसम खा चुके हैं कि अब वे राजद में वापस नहीं जाएंगे, लेकिन जनता की सेवा करते रहेंगे। उनके अनुसार राजनीति हार-जीत के लिए नहीं, बल्कि रिश्ते बनाने के लिए है। उन्होंने महुआ की जनता के प्रति आभार व्यक्त किया है, बिहार के जनमत के सामने सिर झुकाया है और आगे भी जनता से जुड़े रहने व सेवा करने की बात कही है। इस तरह की बातें कोई संत ही कह सकता है। उनकी ईशभक्ति सर्वविदित है-इसलिए वे अपनी बात से पीछे हटेंगे, इसकी संभावना नहीं है। राजद की ओर फिर रुख नहीं करेंगे।
लालू प्रसाद यादव की बेटी रोहिणी आचार्या ने भी ट्विटर पर राजनीति छोड़ने की घोषणा की है। उन्होंने लिखा-“मैं राजनीति छोड़ रही हूं और अपने परिवार से नाता तोड़ रही हूं। संजय यादव और रमीज ने मुझसे यही करने को कहा था। मैं सारा दोष अपने ऊपर ले रही हूं।” “परिवार से नाता तोड़ने” का अर्थ स्पष्ट नहीं-क्या वे लालू-राबड़ी से दूरी बना रही हैं, या तेजस्वी यादव से, जो संजय यादव और रमीज के प्रभाव में चल रहे हैं? कारण जो भी हो, इतना स्पष्ट है कि तेजस्वी पर संजय यादव के प्रभाव से वे भी तेजप्रताप की तरह नाराज हैं और मुखर होकर अपनी नाराजगी जता रही हैं। संजय यादव के नेतृत्व में तेजस्वी के इर्द-गिर्द सक्रिय लॉबी की वजह से दोनों का दामन राजद से छूट चुका है—फर्क इतना कि तेजप्रताप को पार्टी से निकाला गया और रोहिणी ने खुद ही पार्टी छोड़ी है।
चुनाव के पहले टिकट बंटवारे को लेकर राजद में तूफान मचा हुआ था। टिकट कटने पर कई दावेदारों ने संजय यादव और उनकी लॉबी पर पैसे लेकर टिकट बेचने का आरोप लगाया था। राजद के अंदर मुख्य रूप से दो धाराएं बन गई थीं। स्थानीय कार्यकर्ताओं का एक समूह संजय यादव को बिल्कुल पसंद नहीं करता था। प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्हें अपने साथ बैठाकर तेजस्वी ने साफ संदेश दिया था कि संजय यादव को नापसंद करने वालों के लिए पार्टी में कोई जगह नहीं है। अब राजद की करारी हार के बाद संजय यादव को नापसंद करने वाले कार्यकर्ता निश्चित तौर पर राजद से दूर होने की मानसिकता में आएंगे। ऐसे में लालू यादव के “सच्चे उत्तराधिकारी” के तौर पर तेजप्रताप उनमें एक नई उम्मीद जगाते दिख सकते हैं।

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