shreshthataabodh : आपने दर्जनों बार पढा सुना होगा कि कालिदास भारत के शेक्सपियर थे। समुद्रगुप्त भारत के नेपोलियन थे, आदि आदि… यहाँ तक कि महर्षि वेदव्यास के लिए ‘होमर ऑफ इंडिया’ भी कहा जाता रहा है। क्या यह अजीब नहीं है?
कश्मीर भारत का स्विट्जरलैंड है, मुंबई या अहमदाबाद भारत का मैनचेस्टर है, गोआ भारत का रोम है…वगैरह वगैरह…
कालिदास शेक्सपियर से लगभग लगभग हजार वर्ष पूर्व हुए थे। साहित्य की सामान्य समझ रखने वाला विद्यार्थी भी जानता है कि कालिदास शेक्सपियर से बहुत ऊपर की चीज थे। शेक्सपियर न भाषाई कौशल में उनके आसपास पहुँचते हैं, न भावों में न ही कथा कल्पना में…
लगभग यही स्थिति है नेपोलियन की। नेपोलियन ने कुल पाँच लाख वर्गमील क्षेत्र पर अधिकार प्राप्त किया था, जबकि समुद्रगुप्त का विजित क्षेत्र कम से कम इसका दुगुना था। नेपोलियन के सामने ही उनका पूरा राज्य उनकी मुट्ठी से फिसल गया और वे कैद में मरे, जबकि समुद्रगुप्त सदैव विजेता ही रहे। फिर कहीं से भी समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहे जाने की तुक है? नहीं।
दरअसल यूरोप वाले जब दुनिया में निकले तो उनका लक्ष्य केवल साम्राज्य बढ़ाना नहीं था, बल्कि उन्हें संसार में यूरोपीय श्रेष्ठताबोध स्थापित करना था। उन्होंने लम्बे समय तक योजनाबद्ध तरीके से इसपर काम किया। वे संसार की तार्किक परंपराओं को भी अंधविश्वास और अपनी फूहड़ आदतों को विज्ञान सम्मत सिद्ध करते गए। और इस तरह अपने गुलाम देशों के लोगों के मन में वे यह यूरोपीय श्रेष्ठताबोध स्थपित करने में एक हद तक सफल भी हुए।
यह बात केवल यूरोपीय विद्वानों की ही नहीं है। अरब देश के लड़ाके भी जब उस रेगिस्तान से निकले तो वे तलवार के साथ साथ श्रेष्ठताबोध ले कर चल रहे थे। उनका मूल लक्ष्य ही पूरी दुनिया पर अपनी संस्कृति थोपना था।
दरअसल कोई आक्रांता यदि अपने व्यक्तिगत उत्थान के लिए युद्ध करे और लगातार विजयी भी हो, तब भी उसकी सत्ता उसकी आयु के साथ ढल ही जाती है। पर यदि वह अपनी संस्कृति का ध्वज ले कर आगे बढ़े तो उसके थकते ही कोई और मजबूत हाथ वह ध्वज थाम लेता है। इस तरह जीत की वह यात्रा शताब्दियों, सहस्त्राब्दियों तक चलती है। यही अरबियों ने किया, यही यूरोपियों ने भी किया।
अब इसी तराजू पर भारतीय बौद्धिकता को तौलिए। यहाँ बौद्धिकता का ठप्पा लगते ही व्यक्ति अपनी सभ्यता, अपनी परंपराओं अपने पूर्वजों को कोसने लगता है। उसे सारी कमियां अपने ही देश में दिखती हैं। यह हीनताबोध इतना प्रबल है कि इस देश में बौद्धिक कहलाने की पहली शर्त ही अपनी चीजों को दोयम दर्जे का मानना है।
अंग्रेजी में एक टर्म है युरोसेंट्रीज्म! यूरोप को श्रेष्ठ मानते हुए हर व्यक्ति, वस्तु, या विचार को यूरोपीय दृष्टि से देखना। यूरोपीय मूल्यों को ही विश्व के लिए सही मानना, और शेष संसार को दोयम दर्जे का मान लेना। हालांकि यह शब्द एक वामी विचारक का दिया हुआ है, फिर भी भारतीय बौद्धिकों पर यह सटीक दिखता है।
भारत को इस हीनताबोध से बाहर निकलना होगा। सच यही है कि शेक्सपियर को यदि यूरोप का कालिदास कहें तो शेक्सपियर का गौरव बढ़ेगा।
(तस्वीर शेक्सपियर के नाटक पर बनी एक बॉलिउडिया फिल्म की है। आप मेघदूत या अभिज्ञान शाकुन्तलम पर किसी फिल्म की उम्मीद नहीं कर सकते।)