Religion : धर्म संतान का

Prashant Karn

Religion : धर्म आस्था का विषय है . इसे दृढ विश्वास के रूप में परिभाषित किया जा सकता है . दर्शन की दृष्टि से कहें तो धर्म शब्द संस्कृत के घृ धातु से बना है , जिसका अर्थ है जो धारण किया जाए , धारण करने योग्य . इसके विश्लेषण से हम पाते हैं कि जो सिद्धांत , मूल , विचार , मूल्य , आचरण धारण करने योग्य हो , धर्म है . हिन्दू सनातन धर्म में धर्म की दो प्रमुख श्रेणियाँ उभरकर आती हैं . प्रथम आध्यात्मिक धर्म , जिसमें अलौकिक शक्ति (ईश्वर , देवता ) की पूजा , सेवा ; धार्मिक भक्ति , आस्था के पालन की प्रतिबद्धता आदि हैं . द्वितीय यह सामाजिक (भौतिक ) धर्म , जिसमें सामाजिक मान्यताओं , परम्पराओं के पालन की प्रतिबद्धता , राज धर्म न्याय धर्म आदि आते हैं . अब संतान का धर्म क्या होगा ? वह इन दोनों श्रेणियों के धर्म की प्रतिबद्धता से बँधा है . हम राष्ट्र सर्वोपरि की परिकल्पना में जीने वाले भारतीय हैं , क्योंकि हम भारत राष्ट्र नहीं अपितु हजारों वर्षों से भारत माता कहते आए हैं . अब चर्चा माता के प्रति श्रद्धा – भक्ति , सेवा पर तार्किक रूप से आ जाती है . स्वतन्त्रता के बाद से हमें आदत डाल दी गयी कि हमें देखना है कि राष्ट्र हमारे लिए क्या करता है . थोड़ी देरी हुई , कठिनाई हुई तो हम आक्रोश में आंदोलन करते रहे . माता के कर्तव्य के प्रति ऊँगली उठाने को तत्पर रहे . हमने कभी ऐसा आंदोलन खड़ा नहीं किया कि हम भारत माता के आदर , श्रद्धा , सेवा के लिए क्या कर सकते हैं ? हम स्वयं को भारत माता की गोद में अपने आप को समर्पित कर यह अपेक्षा करते हैं कि हम स्वयं कुछ नहीं करेंगे और हमारा लालन – पालन राष्ट्र करे . हमें मुफ्तखोरी का अभ्यास स्वतन्त्रता के बाद साठ दशकों तक कराया गया .अब भी चुनावों में मुफ्त की रेवड़ियों के पीछे दौड़ते हुए हम अपना मत गिरवी रख देते हैं और राष्ट्र की चिंता के प्रति विमुखता के दृष्टिकोण को हृदय से चिपकाए रखते हैं . सोचते हैं कि जिन्हें राष्ट्र की चिंता करनी है वे करें . हमें राष्ट्र द्वारा पालित होना है . हम अपने अधिकार के प्रति जितने सजग हैं , उतने ही उदासीन हैं अपने राष्ट्र धर्म , कर्तव्य के प्रति . ऐसा हमें बनाया गया !
संतान के सामाजिक पाँच ऋण शास्त्रों में बताए गए . मातृ ऋण , पितृ ऋण , गुरु ऋण , समाज ऋण और राष्ट्र ऋण . इनमें से एक भी ऋण से हममें से अधिकतर देशवासियों को कोई मतलब ही नहीं रहा . हम ऋणं लित्व घृतं पिवेत सिद्धांत का पालन करने वाले भारतीय हैं . ऋण लेकर न चुकाने में मेहुल चौकसी , विजय माल्या आदि के महिमामंडन करने से हम नहीं चूकते . ऋण चुकाने की भारतीय परम्परा अंग्रेजी सभ्यता के चकाचौंध में कहीं खो गयी है . हम सभी स्थानों पर धार्मिक दृष्टिकोण छोड़ वैश्विक , पाश्च्यात , वैज्ञानिक , आर्थिक दृष्टिकोण खोजते रहते हैं . जहाँ लाभ दिखा , नाव वहीं खड़ी कर दी . चाहे समाज अथवा राष्ट्र की खाट खड़ी ही क्यों न हो ? हमें स्वयं से मतलब है . हम बिना परिश्रम , उद्यम , मेधा , प्रतिभा के राष्ट्र के हमारे प्रति कर्तव्य की जुगाड़ का झंडा लेकर आँखें मूँदकर चलने वाले असंवेदनशील स्वतंत्र भारतीय जो ठहरे ! संतान के धर्म , कर्तव्य से हमें क्या लेना – देना ? हम माता – पिता , समाज , राष्ट्र , सरकार के धर्म में त्रुटि खोजने निकल जो पड़े हैं .
कबीरा खड़ा बाजार में , लिए लुकाठी हाथ .
जो घर जारे आपनो , चलो हमारे साथ !

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