दीपक जोशी
Manmohan Singh : प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सबसे बड़ी कमी ये रही कि 10 साल तक प्रधानमंत्री पर रहने के बावजूद वो कभी प्रधानमंत्री नहीं रहे..उनके पास सिर्फ पद था, अधिकार नहीं और खास बात ये है कि उन्होंने कभी अधिकार हासिल करने की कोशिश भी नहीं की..मनमोहन सिंह ताउम्र नौकरशाह रहे..नौकरशाह यानी जो कार्यपालिका यानी सरकार के ऑर्डर को फॉलो करता है..फिर चाहे वो आदेश गलत हों या सही..नौकरशाह का काम उन ऑर्डर्स को एक्ज़ीक्यूट करने तक सीमित रहता है और नौकरशाही की ये विशेषता मनमोहन सिंह के भीतर तक धंस चुकी थी..यही वजह है कि प्रधानमंत्री बनने के बावजूद मनमोहन सिंह ने बिना किसी विरोध के 10 साल तक सरकार (सुपर पीएम सोनिया गांधी और उनकी किचन कैबिनेट यानी नेशनल एडवाइज़री काउंसिल)के ऑर्डर को फॉलो किया..
ये हाल तब था, जब मनमोहन सिंह इस पद के लिए कांग्रेस के लिए ज़रूरी और सोनिया गांधी की मज़बूरी थे..मनमोहन सिंह के अलावा उस वक्त कांग्रेस के पास दो ही चेहरे थे, जो प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो सकते थे..पहले प्रणब मुखर्जी औऱ दूसरे पी चिदंबरम..लेकिन प्रणब मुखर्जी के साथ दिक्कत ये थी कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उन्होंने जिस तरह प्रधानमंत्री बनने की कोशिश की, उससे उन्होंने गांधी परिवार का विश्वास खो दिया..पहले राजीव गांधी और बाद में सोनिया गांधी ने प्रणब मुखर्जी पर कभी भरोसा नहीं किया..जहां तक पी चिदंबरम का सवाल था तो स्वयंभू ओवर स्मार्टनेस के शिकार थे..चिदंबरम को लगता था कि उनसे ज़्यादा प्रतिभाशाली और कोई नहीं है..भ्रष्ट तो वो थे ही..ज़ाहिर है प्रधानमंत्री पद के लिए मनमोहन सिंह ही सोनिया गांधी की इकलौती और भरोसेमंद पसंद थे..लेकिन उन्होंने कभी अपने अधिकार नहीं मांगे..तब भी नहीं जब राहुल गांधी ने एक बहुचर्चित प्रेस कॉन्फ्रेंस में सरकार के लाए अध्यादेश को फाड़ दिया..
राहुल गांधी के हाथों हुई इस बेइज्ज़ती पर भी मनमोहन सिंह खामोशी से सह गए, जबकि ये एक ऐसा मौका था, जहां वो कांग्रेस हाईकमान के घुटनों पर ला सकते थे..लेकिन जैसे भीष्म पितामाह ने कौरव सभा में दुर्योधन और दुशासन के हाथों द्रौपदी का चीरहरण चुपचाप देख लिया..वैसे ही अध्यादेश फाड़कर सरकार के इकबाल का चीरहरण करने वाले राहुल गांधी के कुकृत्य पर मनमोहन सिंह मौन साध गए..भीष्म पितामाह ने पुत्रमोह में डूबे धृतराष्ट्र (सोनिया गांधी)के पुत्र दुर्योधन (राहुल गांधी)की सत्ता की रक्षा का वचन लिया था और ताउम्र इस प्रतिज्ञा को निभाते रहे..यही वजह है कि भीष्म पितामाह हों या मनमोहन..दोनों ही अपयश के भागी बने..बाणों की शैय्या में प्राण छोड़ने पड़े..
ये तो बात हुई 10 साल तक प्रधानमंत्री रहे एक ऐसे नेता की..जिसने अपने अधिकारों को त्यागकर इस पद की गरिमा कम की..लेकिन इसके अलावा भी उनके कार्यकाल में कुछ ऐसे पाप हुए..या चेष्टा हुई..जो उनकी ईमानदारी और पर्सनल इंटेग्रिटी पर एक दाग रहेंगे..इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं..
1- सांप्रदायिक हिंसा विधेयक – ये बात तो आप जानते हैं कि सुपर पीएम यानी सोनिया गांधी के मंत्रिमंडल नेशनल एडवाइज़री काउंसिल में ऐसे लोग थे, जो हिंदुओं से नफरत करते थे और इसका नफरत का सबसे निकृष्ट रूप दिखा 2011 में लाए गए सांप्रदायिक हिंसा विधेयक में..इस विधेयक में हमलावर औऱ पीड़ित की जो परिभाषा तय की गई थी, उसके मुताबिक अल्पसंख्यकों (मुख्यत: मुसलमान)को हमेशा पीड़ित माना जाएगा और किसी भी हिंसा या दंगों का दोष बहुसंख्यकों यानी हिंदुओं पर होगा..आज़ाद भारत का ये इकलौता विधेयक था, जिसमें ये पहले ही तय कर दिया गया था कि दंगों के दोषी किस धर्म के लोग होंगे..बस राहत की बात ये रही कि विधेयक संसद में पारित नहीं हो सका..ये विधेयक कितना एकतरफा था, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगा सकते हैं कि तृणमूल कांग्रेस तक ने इसका विरोध किया
2- शर्म-अल-शेख की शर्म – पाकिस्तान को लेकर भारत की आधिकारिक विदेश नीति ये रही है कि जब तक पाकिस्तान आतंकवाद पर लगाम नहीं लगाता, तब तक द्विपक्षीय बातचीत नहीं होगी..पाकिस्तानी आंतकी हिंसा में लाखों भारतीयों की जान जा चुकी है..इसमें ज्यादातर हिंदू लेकिन कुछ मुसलमान भी हैं..ज़ाहिर है पाकिस्तान को लेकर भारत की इस विदेश नीति पर एक राय थी..लेकिन 2010 में मिस्र के शर्म-अल-शेख में भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी मिले..2010 यानी 2008 में मुंबई में हुए आतंकी हमले के सिर्फ 2 साल बाद की बात है..लेकिन दोनों नेताओं की मीटिंग्स के बाद जो साझा बयान जारी किया गया, उसमें से समग्र बातचीत से आतंकवाद की शर्त को हटा दिया गया..यानी पाकिस्तान अगर आतंकवाद को अपना समर्थन जारी भी रखता है, तब भी इसका बातचीत पर कोई असर नहीं पड़ेगा..लेकिन इससे में शर्मनाक बात ये था कि पाकिस्तान ने इस साझा बयान में ये बात भी डलवा दी कि भारत भी बलूचिस्तान में आतंकवादी घटनाओं को बढ़ावा दे रहा है..भारतीय खुफिया एजेंसियां बलूचिस्तान में अलगाववाद को बढ़ावा दे रहा है..सोचिए पाकिस्तान के सामने मनमोहन सिंह ने सरेंडर कर दिया..हालांकि शर्मसार होने के बाद सरकार को इससे ज्वाइंट स्टेटमेंट से पीछे हटना पड़ा..खुद कांग्रेस के कई नेता इस बात से हैरान रह गए कि आखिर मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के सामने इस तरह घुटने क्यों टेके?
3- भ्रष्टाचार पर चुप्पी यानी सहमति – अति का भला ना बोलना..अति का भली ना चूप..ये बात सही है कि बहुत बोलने और बड़बोले होने की तुलना में खामोशी बेहतर है..मनमोहन सिंह ने कहा भी था कि हज़ारों जवाबों से अच्छी है खामोशी मेरी..ना जाने कितने सवालों की आबरू रख ली..लेकिन जब सवाल देश की आबरू से जुड़े हों, तब खामोश रहना अपराध है..मनमोहन सिंह के कार्यकाल में घोटालों की बाढ़ आ गई थी, खासकर दूसरे कार्यकाल में..गांधी परिवार से लेकर UPA में शामिल हर पार्टी को आसन्न हार का अंदेशा होने लगा था..इसलिए सरकार जाने से पहले सब देश को लूटकर अपनी तिजोरी भरना चाह रहे थे..और मनमोहन सिंह इस लूट को देखते रहे..अभी वाला चौकीदार चोर है या नहीं..इसका आंकलन तो भविष्य में होगा..लेकिन तत्कालीन चौकीदार..चोर भले ही ना रहा हो..लेकिन उसने चोरी की अनदेखी तो की..
4- वक्फ बोर्ड को प्रॉपर्टी सौंपना – चूंकि आजकल इस पर काफी चर्चा हो चुकी है कि सरकार ने जाते-जाते किस तरह दिल्ली में सैकड़ों प्रॉपर्टी वक़्फ़ बोर्ड को दी..इसलिए ज्यादा डिटेल में लिखने की आवश्यकता नहीं है..
PS – ये सब लिखने के बावजूद मैं ये भी कहूंगा कि मनमोहन सिंह उन नेताओं की पीढ़ी के कुछ चुनिंदा शख्सियतों में थे, जिन्होंने सार्वजनिक जीवन में वाणी औ कर्म की मर्यादा बनाए रखी..प्रधानमंत्री जैसे पद पर बैठे नेता को पब्लिक लाइफ में खुद को कैसे कैरी करना चाहिए, इसका उदाहरण पेश किया..काश वो अपने काम में भी कुछ सख्ती दिखाते..प्रधानमंत्री पद के अधिकारों का उपयोग करते तो शायद इतिहास उनके प्रति और ज़्यादा दयालु होता..