Ram name satya hai : एक शव यात्रा यह भी

Prashant Karn

Ram name satya hai : आज सभी माध्यमों से चर्चा का विषय अहमदाबाद में अपने ही हिंदुस्तान के माननीय प्रधानमंत्री जी को सादगी के साथ अपनी माताश्री की शव यात्रा है. राजनीति में यह अविश्वसनीय घटना हमारे लिए निकली. सभी आस लगाए रह गए कि ताम – झाम में , पूर्व के राजनितिक चलन से , विश्व के बड़े से बड़े नेताओं की उपस्थिति में , छोटे से बड़े स्वदेशीय और विधान सभाओं के साथ संसदों के माननीयों के साथ यह शव यात्रा निकलेगी. प्रेस मिडिया वालों को लाइव कमेंट्री देखने का गौरव और सुख मिलेगा . सभी की आशाओं पर पानी फिर गया . हद तो तब हो गयी जब माननीय प्रधानमंत्री जी अपनी माताश्री के अंतिम संस्कार की अग्नि शांत हुई नहीं कि काम में जुट गए. माननीय प्रधानमंत्री जी के इस कार्यकलाप से राजनीति की पूरी चमचागिरी संस्कृति को घनघोर धक्का लगा है . ऐसा नहीं होना चाहिए. समस्त चमचागिरी की संस्कृति और सभ्यता , जिसके विकास में हिंदुस्तान ने स्वतन्त्रता के बाद दशकों तक कितनी पवित्रता से किया था , पर यह कुठाराघात हो गया . राजनीति चमकाने का सुनहरा अवसर हाथ से फिसलता हुआ रेत बन गया. फुसफुसाहट होने लगी है कि ऐसे अवसरों से हमारे राष्ट्रीय परम्परा का मुखमंडल लटक गया है . कुछ लोग इस बात से दुःखी नहीं हैं कि माननीय प्रधान मंत्री जी ने अपनी माता को खो दिया है , वरन इस बात से घनघोर आहत हैं कि यात्रा में सम्मिलित होकर फोटो खिंचवाने , टीवी पर दिखने से का स्वर्णिम अवसर नहीं मिल सका. वे भारत जोड़ने के मनोरंजन के एक विराम के बाद खाली बैठे थे. भारत जुड़ा न नहीं , लेकिन इस घटना से उनका मनोबल टूट गया. कहने लगे -यह विपक्ष के साथ एकदम नया अन्याय है . हम इसे स्वीकार नहीं कर सकते . इससे हमारी बदनामी होने लगी है. हमें बदनामी से डर नहीं है . लेकिन इसको लेकर विदेशों से हमारे चंदे का धंधा भी मंदा हो जायेगा . इसके पहले कि मामला राजनीतिक हो जाए , यह प्रसंग यहीं बंद करता हूँ . मुझे राजनीति से क्या लेना-देना .
मैं आज उस शव यात्रा की बात करने बैठा हूँ जो मुझे याद है . दशकों पूर्व की एक अनोखी शव यात्रा . एक तिरस्कृत , अत्यंत निर्धन और अवांछित महिला की शव यात्रा में पूरा राजपथ भरा था . पूरी दिल्ली ही नहीं देश का शायद ही कोई विधायक , सांसद , अधिकारीगण , पंचायत से लेकर नगर निकायों तक के जन प्रतिनिधि नहीं थे , जो इस शव यात्रा में पूरे ताम – झाम के साथ नहीं थे . राज्यों , केंद्रशासित प्रदेशों में भी , सभी शहरों , देहाती क्षेत्रों तक में भी इसी दिन शव यात्रा आयोजित , प्रायोजित की गयी थी . पूरा राष्ट्र इसे उत्सव के रूप में मनाने के लिए सड़कों पर निकल पड़े थे . सरकार , उसके तंत्र के नीचे से ऊपर तक के लोग , व्यापारी वर्ग , ठीकेदार लोग , समाज के अधिकतर धनी लोग इसमें उल्लास के साथ सम्मिलित थे. कहीं से यह शव यात्रा लगती ही नहीं थी . ढोल-मजीरे भी बजते थे. लोग बीच – बीच में नृत्य भी करते. चिलम भी फूँके जाते थे. सोमरस के ठेले भी साथ चलते और लोग इसका सेवन कर मस्ती में झूमते भी थे . पीकर बहके लोग यह बार -बार कहते कि अंतिम क्रिया समाप्त होने तक टिके रहना है . समस्त हिंदुस्तान के सारे मुक्तिधामों तक लोग शव को लेकर गए . शव को अंतिम संस्कार के लिए एक – दूसरे पर टाल कर मौज मनाते लौट आये थे.सब ने यह मान लिया था कि वह तिरस्कृत , निर्धन , अबला और अवांछित महिला का स्वर्गारोहण सभी स्थानों से हो चूका है.
लेकिन जो लोग इस शव यात्रा में नहीं गए , लोग उन्हें धिक्कारने लगे . उनकी सार्वजनिक निंदा होने लगी. हिंदुस्तान के सैनिकों की निंदा सबसे अधिक हुई क्योंकि उनमें से किसी ने इस शव यात्रा में भाग नहीं लिया था . कुछ अधिकारी , सरकारी व्यापारी , व्यवसायी , समाज के बहुत लोग इसके शिकार बनने लगे. वे डर कर रहते.
किसी समाचार पत्र या मिडिया ने यह नहीं सार्वजनिक किया कि जिसकी शव यात्रायें निकाली गयी , वह कौन थी . भीड़ मौन थी. लोग एक -दूसरे को मूक होकर देखते , लेकिन किसी ने मुँह नहीं खोला. दशकों बाद पता चला कि ईमानदारी की शव यात्रा निकाली गयी थी और श्मशानों से वह किसी तरह चिताओं से उठकर भाग गयी थी और गुमनाम जीवन बिता रही थी. सुना है अब उसका स्वास्थ्य ठीक होने लगा है.

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