उमानाथ लाल दास
Shaheed Diwas 23 March : दोगला विचारों से पोषित राजनीति के लिए जब स्वतंत्रता संघर्ष से अर्जित मूल्य, आदर्श, परंपरा की अहमियत नहीं बची, तो सुखदेव, राजगुरु, भगत सिंह का जिक्र एक नारे से अधिक नहीं बचता है। भारतीय अखंडता का मजाक उड़ानेवाले बॉलीवुड में एक मसाला से अधिक उनकी अहमियत नहीं … आजादी की लड़ाई से सख्त परहेज करते हुए रियासत और अंग्रेजों की अनुकंपा से पल-बढ़कर जो संविधान निर्माता हो गये, उनके भक्त लोग भगत सिंह की कुर्बानी को क्यूं याद करेंगे … जबकि उनके मसीहा ने बेड़ियों में जकड़े एक सेनानी तक का हालचाल न लिया हो …
अपने हिसाब से अहिंसा को पूजनेवाले जब भगत सिंह को घोर नफरत से भरकर फूटी आंखों देखना नहीं चाहते हों तो इस खोखली विरासत का ढोल पीटनेवाले उन्हें झंडे का एक रंग से ज्यादा नहीं जानते …..
भारत छोड़ो आंदोलन के समय जो अंग्रेजों के साथ खड़े थे उन कम्युनिस्टों का मानना था कि भारत एक राष्ट्र नहीं, बल्कि कई राष्ट्रीयताओं का देश है। जिनके लिए 24 मार्च 1945 को तत्कालीन अतिरिक्त गृह सचिव रिचर्ड टोटनहम ने भारतीय कम्युनिस्टों के बारे में कहा था कि वे किसी का विरोध तो कर सकते हैं, पर किसी के सगे नहीं हो सकते सिवाय अपने स्वार्थों के।’ .. नेताजी के लिए तोजो का कुत्ता की संज्ञा का इस्तेमाल करनेवाले को देश नहीं भूला है
राजनीति को तुच्छ माननेवाले जिस संघ का मानना था कि जब तक समाज का और समाज में रहने वाले लोगों का हिंदू संस्कृति के माध्यम से उद्धार नहीं हो, तब तक आज़ादी केवल राजनीतिक आज़ादी बनकर रह जाएगी। अभी राजनीति को प्रश्रय देनेवाले संघ के लिए यहां रहनेवालों का हिंदू संस्कृति से उद्धार हो गया क्या …? भारत छोड़ो आंदोलन के डेढ़ साल बाद ब्रिटिश राज की बॉम्बे सरकार ने एक मेमो में खुशी व्यक्त करते हुए लिखा था कि संघ ने पूरी ईमानदारी से ख़ुद को क़ानून के दायरे में रखा, ख़ासतौर पर अगस्त, 1942 में भड़की अशांति में वो शामिल नहीं हुआ।
जब सभी ने मिलकर उस विरासत को गंवाया है तो गलित मूल्यों और दूषित विचारों से पोषित राजनीति करनेवाले जब कहते हैं कि उन्हें गांधी, आंबेडकर और भगत सिंह का हिंदुस्तान चाहिए तो बेशरमी भी अपने लिए ठौर-ठिकाने तलाशने लगती है। क्या एक बार फिर देश को आजादी पूर्व के वैचारिक घात-प्रतिघात से भरे विषैले दौर में ले जाने की जिद नहीं है यह ?