उमानाथ लाल दास
Marksvad Aur Ramrajya : दशनामी परंपरा के संन्यासी स्वामी करपात्री जी महाराज का एक विशालकाय ग्रंथ है “मार्क्सवाद और रामराज्य”। जम्मू कश्मीर आंदोलन के सिलसिले में 1953 में दिल्ली में, विश्वनाथ मंदिर सत्याग्रह के सिलसिले में 1955 में काशी में गिरफ्तारी, 1956 में चातुर्मास्य के सिलसिले में काशी में अधिकांश लिखित यह ग्रंथ 1957 में प्रकाशित होने के बाद से काफी समादृत रहा। 2023 में 1500 प्रतियों के साथ इसका 14वां पुरर्मुद्रण प्रकाशित हुआ। अब तक इसकी 34,500 प्रतियां निकल चुकी हैं। जितनी यह छपी उतनी तो एक पुस्तकालय में किताबें नहीं होतीं हैं।
अमेरिकी भाषाविज्ञानी नोम चोम्स्की के बारे में कहा जाता है कि किसी जीवित लेखक को इनसे अधिक कोट नहीं किया गया है। कुछ ऐसी ही जिज्ञासा और चर्चा का वातावरण बनाया इस ग्रंथ ने। और इसके पीछे की वजह इसका शीर्षक अधिक है। एक भारतीय संन्यासी का पाश्चात्य धर्म-दर्शन का गहन अध्ययन और ऊपर से भौतिकवादी की यांत्रिक परिणति मार्क्सवाद पर इनका अधिकार चमत्कृत करता है।
एक बात है कि पाश्चात्य दर्शन, पाश्चात्य राजनीति, आधुनिक विचारधारा, विकासवाद, मार्क्सीय द्वंद्ववाद, वर्ग संघर्ष, मार्क्सीय अर्थव्यवस्था, ऐतिहासिक भौतिकवाद, मार्क्स दर्शन, मार्क्सीय समाज-व्यवस्था, मार्क्स और ज्ञान, मार्क्स और आत्मा, मार्क्स और ईश्वर, उपसंहार के अलावे श्रीराम की राजनीति व रामराज्य के स्वरूप को समेटता परिशिष्ट। यही है ग्रंथ की सामान्य रूपरेखा। सभी अध्यायों के परिच्छेदों का, दर्शन और वाद जिनका भी जिक्र है यहां, उसके पूर्वपक्ष (उल्लिखित विषय) फिर विषय का भारतीय वांग्मय की दृष्टि से विवेचन करता उत्तर पक्ष। वैसे ग्रंथ के जरिये प्रस्तावक ने प्राच्य और पाश्चात्य आधारभूत सिद्धांतों के सूक्ष्म व विस्तृत विवेचना की कमी को पूरा करने का दावा किया है।
1150 पृष्ठों व 14 अध्यायों में विभक्त पूरे ग्रंथ में कहीं भी मार्क्सवाद और रामराज्य का न तुलनात्मक अध्ययन है और न ही दोनों में अंतर्संबंध प्रतिपादित है। हां, आखिरी 4 पृष्ठ जरूर रामराज्य को समर्पित है। 170 पृष्ठ तो दर्शन की अवधारणा और उसकी वैश्विक परंपरा को दिया गया है। भारतीय षडदर्शन का तो इसमें जिक्र तक नहीं है। यत्र-तत्र इसकी छौंक जरूर है। सबसे रोचक तो है मार्क्स दर्शन पर केंद्रित नौवां अध्याय। इसमें एक परिच्छेद है मार्क्स और धर्म नाम से। 141 पन्ने के इस अध्याय में वैज्ञानिक द्वंद्ववाद से लेकर पूंजी, ऐतिहासिक द्वंद्ववाद, धर्म और अर्थ आदि 15 परिच्छेदों में 15वां परिच्छेद है मार्क्स और धर्म। इसमें एक शब्द तक न तो “मार्क्स” और न ही “धर्म” का जिक्र है। अब यह हो सकता है भौतिकवाद से मार्क्स का और देवता, ईश्वर, अध्यात्मवाद की मीमांसा धर्म हो, तब तो अलग बात।
इस चर्चे का आशय इस विराट ग्रंथ को अपने उद्देश्य में विफल साबित करना तो कतई नहीं, हां उल्लिखित शीर्षक को लेकर जिज्ञासु पाठक की निराशा जरूर है। इस ग्रंथ की उपलब्धि या भारतीय मनीषा का गौरव का बोध दूसरे रूप में होता है। स्वामी जी का धर्म दर्शन को लेकर विराट और गहन अध्ययन जरूर दांतों तले उंगली दबाने पर मजबूर कर देते हैं।
बेहतर होता कि विषयवस्तु की आंतरिक संगति और अध्ययन की अन्वीति के आधार पर कोई और शीर्षक होता। लेकिन ग्रंथ के पारायण से इतना कहा जा सकता है कि चार अध्याय (मार्क्स-मारृक्सवाद समेत) पाश्चात्य धर्म-दर्शन, नौ अध्याय मार्क्सवाद पर तथा एक अध्याय दर्शन-राजनीति के भारतीय पक्ष पर केंद्रित है। अब यदि इन 13 अध्यायों से यदि मार्क्सवाद और एक अध्याय से यदि रामराज्य से आशय है तो शीर्षक और प्रस्तावना सोद्देश्य कहे जा सकते हैं।
और अंत में : इस महान कार्य के पीछे स्वामी जी के अनन्य भक्त मुंबई के उत्साही लेखक वासुदेव व्यास के श्रमसाध्य अनुवाद को तथा बिखरी पड़ी सामग्रियों के कष्टसाध्य संकलन, व्यवस्था और विन्यास के लिए कल्याण के संपादकीय विभाग के जानकीनाथ शर्मा का योगदान अविस्मरणीय है।