Arun Ranjan : एक्टिविस्ट पत्रकार की मजबूत कड़ी थे अरुण रंजन

Bindash Bol

उमानाथ लाल दास

Arun Ranjan : जो बातें हर जगह आ रही हैं, उसे छोड़कर कुछ बातें साझा कर रहा हूं। संभव है श्री नारायण समीर जी, पलाश दा, मदन कश्यप, नारायण सिंह जी के संज्ञान में किसी न किसी रूप में ये बातें हों ।

सुख-सुविधा की नौकरी छोड़ कर तब अरुण रंजन स्वतंत्र पत्रकार की हैसियत से काम कर रहे थे। झारखंड में दिशोम गुरु और गुरु जी के नाम से विख्यात शिबू सोरेन तब भूमिगत होकर जमींदारों-सूदखोरों के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे। तब तक मार्क्सवादी चिंतक एके राय, तब माकपा नेता बिनोद बिहारी महतो, कांग्रेस नेता और पत्रकार मुकुटधारी सिंह की सोहबत से दूर थे। झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन नहीं हुआ था। तब शिबू सोरेन से इंटरव्यू उन्होंने ही स्वतंत्र पत्रकार की हैसियत से लिया था। साथ में उपन्यासकार मनमोहन पाठक थे। पहले तो पाठक जी सवाल बढ़ा रहे थे। फिर उन्होंने इंटरव्यू की डोर पाठक जी को थमा दी। उस इंटरव्यू का कमाल था कि शिबू सोरेन अपने आवेग, विचारधारा, क्रांतिधर्मी चेतना के साथ सबके सामने आये। इंदिरा गांधी का ध्यान उधर गया। और एक एजेंडे के तहत तत्कालीन उपायुक्त केबी सक्सेना इस असाइनमेंट में लगाये गये। फिर त्रिमूर्ति (राय सिंह महतो) के साथ सारे समीकरण बने। उनकी पत्रकारिता तय करती थी मुद्दे, दिशा, ,,, सबसे बड़ी और अनोखी बात थी कि बड़ी और हस्तक्षेपकारी बात भी बड़े ही निर्विवाद ढंग से करते थे ।

मनमोहन पाठक के प्रतिष्ठित उपन्यास “गगन घटा घहरानी” की बहुत डूबकर समीक्षा की थी उन्होंने संपादक की हैसियत से नवभारत टाइम्स, पटना के पहले पन्ने पर। और विशेष नोट में लिखा था इस बार का संपादकीय यही।‌ और संपादकीय सचमुच नहीं लिखा गया उस अंक में। पत्रकारिता के इतिहास का शायद इकलौता मामला होगा यह। यह साहस वह डिजर्व करते थे। आज तो भांडों को कवि-लेखक बना रहा है अखबार। उनको छापकर न सिर्फ धन्य हो रहा है, बल्कि साहित्य का पारखी और विद्वान भी कहला रहा है संपादक। साहित्य अकादमी की खबर सिंगल में और भांडों/रैकेटियर की गतिविधियां, कार्यक्रम तीन/चार कालम से कम नहीं।

आप अपनी पत्रकारीय पहल व एक्टिविज्म के कारण तो भुलाये नहीं ही जा सकते, पर घिना रही पत्रकारिता के बीच अरुण जी आप और भी याद आयेंगे।

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