डॉ प्रशान्त करण
(आईपीएस) रांची
Conceit : दम्भ सबके भाग्य में कहाँ ? निर्धनता , निःशक्ति , दुर्बलता क्या ख़ाक दम्भ करेगी ? दम्भ करे भी तो किसी का क्या बिगाड़ लेगी? किसी का बिगाड़ पाना सब के बस में नहीं . सब इसे निभा ही नहीं सकते . निभाता वह है , जो शक्तिमान हो , पद के मद में हो , शक्तिशाली हो , धन के घमंड में चूर हो !ऐसे तो बिरले ही हैं , लाखों में एक . लेकिन नशे में मदमस्त निर्धन , निःशक्त को मधु इतनी शक्ति दे देता है कि वह ठेके से लड़खड़ाकर निकलते हुए अपनी लड़खड़ाती बोली में एक ही खम्भे से बार-बार टकराकर यही कहता है- क्या बिगाड़ लेगा कोई.
अतिशय आत्मविश्वास में अपने को सर्वशक्तिमान समझकर ही बिगाड़ लेने की चुनौती देना या तो घोर मूर्खता है या फिर यह घोषित करने वाला सच्ची चुनौती दे रहा है. अतिशय आत्मविश्वास सबसे अधिक घातक होता है , यहाँ तक कि आत्मविश्वास के लेशमात्र न रहने से भी अधिक . सेर पर सर्वदा सवा सेर पड़ जाते हैं . मनुष्य योनि में जन्मे व्यक्ति को अधिकतर यह भ्रम होता है कि उसका कोई बिगाड़ नहीं सकता. जीव – जंतु उसका बिगाड़ देते हैं .कोई मनुष्य ही उसका बिगाड़ देते हैं . तब जाकर वह आस्था के कुंड में डुबकी लगाकर अपने आराध्य की शरण में जाता है . जब उसकी भक्ति उफान पर होती है तो वह अपने को अपने आराध्य के पीछे छिपा लेता है और फिर बिगाड़ने वाली चुनौती दे डालता है – अब कोई मेरा क्या बिगाड़ लेगा कोई ! आस्था और भक्ति अतिशय आत्मविश्वास देती है. फिर अंधभक्ति का कहना ही क्या! फिर ईश्वर से पंगा कौन ले? ईश्वर के पास आकर कोई लौटा भी है क्या? इसी परम्परा के वाहक बिगाड़ लेने की सार्वजनिक चुनती देते हुए यह कहते हैं – सब ऊपर से हो रहा है ! ऊपरवाला शक्ति रखता है . उसकी भक्ति से लेकर अंधभक्ति तक बदले में दम्भ दे जाती है . जितनी भक्ति की मात्रा , उतना अधिक घमंड. जित्नाधिक घमंड , उतनी जोरदार चुनौती – क्या बिगाड़ लेगा कोई . चुनौती मिलने वाला घबरा जाता है . या तो वह आत्मसमर्पण कर देता है , पतली गली से निकल लेता है अथवा चुनौती स्वीकार कर किसी बड़े के शरणागत होता है . बड़ा चुनौती देने वाले तो लाल आँखें कर देखता मात्र है . तब यदि चुनौती देने बड़े को बड़ा मानकर चुनौती वापस ले लेता है . अगर चतुर न हुआ तो भिड़कर पराजित हो लज्जित हो जाता है . उसके दम्भ के साइकिल की हवा निकल जाती है . अब चुनौती स्वीकारने वाला स्वयं चुनौती देने वाला बन जाने का संघर्ष करने लगता है .यह क्रम चलता रहता है. सयाने चुनौती दिलवाते भी हैं और समय रहते क्षमा भी मंगवा देते हैं . जब जैसे निभ जाए !
मैं न तो कभी चुनौती देने वाला बना और न ही इसे स्वीकार करने वाला. मैं तो दोनों से बचकर चलता हूँ . वैसे भी एक अदना, टुटपुँजिया लेखक किसी का क्या बिगाड़ लेगा? साहित्य किसी का नहीं बिगाड़ता . वह तो संवारता है .