Judicial Overreach : भारतीय लोकतंत्र की मजबूती का आधार है – विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच स्पष्ट शक्तियों का बंटवारा।
लेकिन हाल ही में जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट द्वारा एक पाकिस्तानी महिला की वापसी के लिए केंद्र सरकार को आदेश देना, और उस पर गृह मंत्रालय (MHA) की आपत्ति, इस संतुलन पर गंभीर सवाल खड़े करता है।
गृह मंत्रालय ने स्पष्ट कहा कि न्यायपालिका को विदेशी नागरिक की वापसी या निर्वासन जैसे मामलों में कार्यपालिका के निर्णयों को नकारना नहीं चाहिए।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 73 के अनुसार, विदेश नीति, आप्रवासन और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे विषयों पर निर्णय लेने का अधिकार पूरी तरह से केंद्र #सरकार यानी कार्यपालिका के पास है। सुप्रीम कोर्ट भी कई बार दोहरा चुका है कि न्यायपालिका को इन क्षेत्रों में ‘न्यायिक संयम’ बरतना चाहिए और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में दखल नहीं देना चाहिए।
गृह मंत्रालय ने हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील करते हुए कहा कि अगर अदालतें ऐसे मामलों में कार्यपालिका के फैसलों को पलटने लगेंगी, तो यह एक खतरनाक मिसाल बन जाएगी। इससे भविष्य में विदेशी नागरिक भी व्यक्तिगत वापसी के लिए अनुच्छेद 226 का दुरुपयोग कर सकते हैं, जिससे देश की आप्रवासन नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा दोनों खतरे में पड़ सकते हैं।
भारत में न्यायिक सक्रियता का उद्देश्य नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना है, लेकिन जब यह सक्रियता ‘अति-सक्रियता’ में बदल जाती है, तो यह लोकतांत्रिक संतुलन को बिगाड़ देती है।
10 अक्टूबर 1998 से 1 नवम्बर 2001 तक भारत के 29 वें मुख्य न्यायाधीश रह चुके स्वर्गीय जस्टिस ए.एस. आनंद ने सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के पद पर रहते हुये ही 9 अगस्त 1997 को ही “जस्टिस एन.डी. कृष्णा राव मेमोरियल लेक्चर” में न्यायिक सक्रियता और न्यायिक संयम पर व्याख्यान देते हुये चेतावनी दी थी …
“न्यायिक सक्रियता को ‘न्यायिक साहसिकता’ में नहीं बदलना चाहिए। अगर हर जज अपनी मर्जी से निर्देश देने लगे, तो पूरी व्यवस्था में भ्रम और अस्थिरता आ जाएगी।”
अदालतें अगर लोकप्रियता या ‘शो ऑफ स्ट्रेंथ’ के लिए ऐसी संवेदनशील नीतिगत मामलों में हस्तक्षेप करेंगी, तो इससे न केवल कार्यपालिका की शक्ति कमजोर होगी, बल्कि न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठेंगे।
विदेशी नागरिकों की एंट्री और डिपोर्टेशन पर निर्णय पूरी तरह से राष्ट्रीय सुरक्षा, विदेश नीति और कानून व्यवस्था से जुड़ा है। इन मामलों में अदालतों का हस्तक्षेप न केवल संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन है, बल्कि राष्ट्रीय हित के लिए भी घातक है।
भारत की न्यायपालिका को अपनी संवैधानिक सीमाओं का सम्मान करते हुए, कार्यपालिका के क्षेत्र में अनावश्यक हस्तक्षेप से बचना चाहिए। लोकप्रियता या मीडिया की सुर्खियों के लिए ‘शो ऑफ’ करना, न्यायिक शक्तियों का दुरुपयोग है। ऐसे मामलों में न्यायिक संयम ही लोकतंत्र और राष्ट्रीय सुरक्षा दोनों के लिए जरूरी है।
गौरतलब है कि पहलगाम हमले के बाद पाकिस्तान गई एक महिला को लेकर केंद्र सरकार और जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट आमने-सामने है। दरअसल, हाई कोर्ट ने एक आदेश दिया था, जिसमें उसने केंद्रीय गृह सचिव को 62 साल की रक्षंदा राशिद को 10 दिन के अंदर पाकिस्तान से वापस लाने का निर्देश दिया था।