रवि अग्रहरि
Antarman : सभी का अपना-अपना सत्य होता है! इसके बावजूद कुछ कॉमन सच, थोड़ा मिलावटी सच, आधा-अधूरा सच; पूरे सच को मिटा कर एक नया सृजित सच; न जाने कितने आयाम बना रखे हैं लोगों ने सत्य के।
सापेक्ष सच से तो अक्सर हम सब वाकिफ होते हैं पर परम सत्य, निरपेक्ष सत्य, आज भी हमारे लिए पहेली ही है। इसके बावजूद इतने सारे सचों के मेले में अक्सर इस बात पर जोर दिया जाता है कि सदा सच बोलो या दूसरा सिर्फ सच बोले और मैं व्यवहारिक सच बोलूँगा!
आपने भी अनुभव किया होगा कि जब हम कोई सीधी-सच्ची बात कहते हैं तो सच में अच्छा लगता है, सुकुन भरा पल होता है लेकिन जैसे-जैसे दिनों-दिन जीवन की जटिलताएँ बढ़ती जा रही हैं, लोग बहरूपिया होते जा रहे हैं।
आमतौर पर सबने कई मुखौटे लगा रखे हैं, जिससे काम चल जाए चला लेतें हैं। दूसरे तरीके से देखा जाए तो कई बार ऐसा भी लगता है कि कोई चाहे भी तो सच नहीं बोल सकता क्योंकि उसके सच के साथ कई और लोगों का सच जुड़ा होता है और वो नहीं चाहते कि उनका सच बाहर आए।
तो जैसे ही आप अपने सच से उनका सच हटाते हैं, आपका सच भी अधूरा हो जाता है।
अगर किसी ने जिद वश पूरा सच कह भी दिया तो हो सकता है कि अगले ही पल उनके जीवन का सच बदल जाए!
एक भयंकर डेडलॉक में जीते हैं लोग, ज़िन्दगी के रंगमंच पर आज हर कोई एक सिद्धहस्त अभिनेता है। किसी से बात करते हुए अगर आप ध्यान दें तो लगेगा कि सिर्फ चंद खोखले शब्दों का आदान-प्रदान हो रहा है। आमतौर पर उनमें कोई अर्थ दिखाई नहीं देगा।
कहीं जाने की इच्छा न होते हुए भी जाते हैं लोग या न जाने के बहाने बनाते हैं लोग, मिलने पर झूठी तारीफें करते हैं और पीठ पीछे ढेर सारी बुराईयाँ। कुछ अच्छा न लगने पर भी सिर्फ मन रखने के लिए मुस्कराते और खोखली प्रशंसा के शब्द लुटाते हैं लोग! ऐसे और भी कई उदाहरण हो सकतें हैं। आप खूब समझते हैं।
ऐसे में यह सब देखकर लगता है कि कितना मुश्किल हो गया है आज एक भी सीधे-सच्चे इन्सान से मिल पाना! वैसे खुद भी बनना या बने रहना कहाँ आसान है, पर कोशिश करने में क्या बुराई है। और अगर साथी अच्छा हो, तो सच को, जो है उसी तरह जीने का जो आनंद है उससे आनंदमय कुछ और नहीं। कोई डर या स्ट्रेस नहीं होगा आपको! तो ऐसे जीने के लिए, ऐसी समझ और परिपक्वता का विकास होना भी जरूरी है।
खैर, अब तो बहुत कम लोगों से बातें होती हैं। पर जब खुलकर होती थीं तो जब बात ख़त्म होती है तो बेवजह एक सवाल पूछ लेता था कि हमारी बातचीत में कितने प्रतिशत सच्चाई है। चूँकि, अक्सर लोगों की परेशानियाँ, तक़लीफे, उलझनें सुनता रहता था और बोलना कम होता तो जवाब मिल ही जाता। क्या है उनका सच जिसे वो छिपा रही या रहें हैं, वह सीधे-सीधे मैं कभी नहीं पूछता, उन्हें उनके झूठ को जब तक वह चाहें संभालने का मौका देता रहता था और ये सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है।
पर यदि ऐसे वार्तालापों को आँकड़ों की दृष्टि से देखें तो नतीजे अक्सर चौकाने वाले होते थे, ढेर सारे आश्वासन देने के बावजूद लोग किसी अनचाही डर या आशंका की वजह से झूठ बोल रहे होते थे।
कभी-कभी जी में आता था कि क्यों न बहुत कम लोगों से मिला जाए ताकि उनका झूठा सच मेरे अपने सच को प्रभावित न कर सके या आज़ाद ही हो लिया जाए उनसे जहाँ झूठ ही व्यवहारिकता है।
फिर से शुरू किया जाए मिलना कुछ ऐसे लोगों से जहाँ सच की संभावना ज्यादा हो!
अभी भी तलाश जारी है। काश जीवन में कुछ ऐसे लोगों से मिल पाऊँ जो सीधे-सच्चे प्यारे से, कायदे के इन्सान हों ताकि अपने होने पर, अपने चयन पर नाज़ हो और खुद भी बन पाऊँ किसी का उतना ही सीधा सच्चा दोस्त, हमसफ़र, बेटा, भाई… के साथ-साथ एक सीधा सच्चा सरल इंसान!
यकीन मानिए जो मज़ा सत्य को जीने में है न, वह सुकून, वह आनंद, किसी चालबाजी, चालाकी या फरेब में नहीं!
