Basant panchami : वसंत पंचमी

Niranjan Srivastava

Basant panchami : माघ मास की शुक्ल पंचमी को श्री पंचमी या वसंत पंचमी कहा जाता है। आज ही के दिन से वसंत की शुरुआत होती है। वसंत ऋतुओं का राजा होने के कारण ऋतुराज कहलाता है। कुसुमकार वसंत का ही पर्याय है । श्री कृष्ण ने गीता में कहा है ‘ऋतुनां कुसुमाकरः।’ इसके गहरे निहितार्थ हैं। श्रीकृष्ण ने यह वसंत की शोभा, फुल्ल कुसमित और द्रुमदलशोभिनी रूप, रस, गन्ध, गान या भावोल्लास को दृष्टि में रखकर नहीं कहा बल्कि इसलिए कहा है कि वसंत में वैष्णवता का बोध है। वैष्णवता के बोध से तात्पर्य इस सृष्टि में निरंतर चालू वानस्पतिक चेतना के आवेश और इससे प्राप्त पुष्टि, तुष्टि, तृप्ति-सुख के बोध से है और इसका प्रतीक है विष्णु की नाभि से प्रस्फुटित कमल, जो प्राण-मुकुल है। वसंत काम-भाव के प्रथम उन्मेष की ऋतु है। कुसुमाकर वसंत शस्य-श्री के आहरण की ऋतु है। आज से शीत-निद्रा से धरती मानों जाग कर अंगड़ाई लेती है। आम्र वृक्षों में प्रस्फुटित होती मंजरियाँ वसंत के आगमन की सूचना देती हैं। आदिगन्त फैले हुए सरसों के खेतों में चटक पीले रंग का समुद्र लहलहा उठता है। यह पीत सौंदर्य उल्लास का प्रतीक है। वसंत के आगमन के पखवारे के भीतर खेतों में पकते अनाजों की गंध हवा में तैरने लगती है। आज ही के दिन रात्रि में होली का ताल ठोका जाता है और ढोल-झाल में होली उतरने लगती है।
आज ही सरस्वती की पूजा होती है। विद्या की देवी सरस्वती की, जो सावित्री (गायत्री) का सांध्य रूप हैं। तांत्रिकों ने त्रिपुर सुंदरी के ‘बाला’ रूप को सरस्वती का विकल्प माना है। परंतु लोकमानस में ‘वीणा पुस्तकरंजितहस्ते’, ‘शेवतवर्णा’, ‘श्वेतवस्त्रावृता’, ‘श्वेत पद्मासना’, ‘श्वेत हंसारूढा’ का पौराणिक रूप ही प्रतिष्ठित है। यही छवि बार-बार कौंधती है। इसी रूप की पूजा-आराधना होती है।
दक्षिणांचल में सरस्वती को श्यामाभ माने जाने के कारण उनकी एक संज्ञा ‘श्यामला’ बहुप्रचलित है। इन सारे विवर्ततनों के बावजूद ‘सरस्वती’ शब्द से मन में एक ‘श्वेतक्षौमधारिणी महाश्वेता’ छवि ही उदित होती है। अत्यंत ही पवित्र और अत्यंत ही लावण्यमयी। एक ऐसी छवि जो मन में ही देवत्व भर दे। एक ऐसा रूप जिसे निहार कर ऐसी अनुभूति होती है कि कोई हमारी दृष्टि को पंचामृत से स्नान करा कर उसे गंगा जल से प्रक्षालित कर रहा हो।
वस्तुतः सरस्वती के लिए ‘लावण्यमयी’ शब्द का प्रयोग बड़ा ही सारगर्भित, अर्थपूर्ण और सार्थक है। ‘सरस्वती’ शब्द में ‘सरस’ का एक अर्थ है ‘सजल’ और दूसरा अर्थ है ‘लवण’। इस प्रकार ‘सरस्वती’ का अर्थ ‘रसवती’ ‘जलवती’ के साथ-साथ ‘लावण्यवती’ भी हैं। संस्कृत कोषों में ‘सरस’ का अर्थ लवण भी मिलता है। लोकभाषा में लवण ले लिए ‘रामरस’ संज्ञा चलती है। मधुर रोज-रोज की चीज़ नहीं। वह तो तीज-त्योहारों और उत्सवों की महिमा का अंग है। नमक रोज-रोज की जरूरत है। राजा हो या रंक नमक सबके लिए जरूरी है। जिजीविषा के मूल में, जीवन में निहित नमक ही है। वह वचनभंगिमा या वाक् का नमक ही है जो सूखी रोटी जैसे जीवन को स्वादिष्ट बनाता है। वाक् या भाषा ही जीवन का नमक है। लैटिन में नमक के लिए ‘सालेरियम’ शब्द चलता है जिससे ‘सेलरी’ (वेतन) शब्द की उत्पत्ति है। सेलरी पाना यानी नमक पाना। हिंदी में प्रचलित ‘किसी का नमक खाना’ या ‘नमक अदा करना’ से सभी परिचित हैं। उर्दू से आयातित ‘नमकहराम’ और
‘नमकहलाल’ शब्द हिंदी में भी चलते हैं। ‘लावण्यवती’ या ‘सरस्वती’ विद्या-बुद्धि का थोड़ा-बहुत नमक सबको बांटती है। इसके बिना तो काम चलने से रहा। अतः सरस्वती को लावण्यमयी कहना कितना सार्थक है!
सरस्वती तो सतोगुणी हैं, ‘सर्वशुक्ला सरस्वती’। भोजन में एक चुटकी नमक ज्यादा पड़ गया कि भोजन का स्वाद बिगड़ा। यही उग्र लावण्य है। लावण्य जब तमोगुण से जुड़ता है तब उग्र होता है और आज ऐसा ही हो रहा है। लोकचित्त हिंसामुखी और अस्वस्थ हो उठा है। नए बोध में अक्षमाला और पुस्तक-वीणा वाली, अभय मुद्रावाली सरस्वती की कोई कदर नहीं। घरों और विद्यालयों में होने वाली सरस्वती पूजा लगभग बन्द हो चुकी है।
यों तो वाक् पशु-पक्षी सबको मिली है। कोई कूजता है, कोई कांव-कांव करता है, कोई रंभाता है, कोई चिंघाड़ता है, कोई गुर्राता है, कोई फूत्कारता है। किंतु शब्द यानी निश्चित अर्थयुक्त ध्वनियाँ पशु-पक्षी को नहीं मिली है। वह केवल मनुष्य कर पास है। लेकिन मनुष्य को मिली यह सारस्वत संपदा नष्ट होने के कगार पर है। नयी राजनीति द्वारा भाषा के शब्द दिन-ब-दिन हिंसा और धूर्तता का शिकार बन अपने अर्थ की सटीकता और ऋजुता खोते जा रहे हैं। यह सबसे बड़ा संकट है जो इस शताब्दी पर तेजी से छा रहा है।
अन्न, पान और भाषा इन तीन पर ही तो जीवन टिका है। भाषा के साथ अन्न और पान भी खतरे में हैं। रासायनिक खाद के प्रयोग से धरती विरसा हो रही है। अन्न अब स्वादिष्ट नहीं रहे। रसोईघर और पारम्परिक पाक-कला पर खाद्य प्रसंस्करण से जुड़े बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा विज्ञापित खाद्य संस्कृति का असर तेजी से हो रहा है। जल प्रदूषित हो रहा है। हम इसकी अनदेखी कर रहे हैं, लेकिन अथर्ववेद का ऋषि अन्न, पान और भाषा के महत्त्व को समझता था और इसलिए उसने वज्रकण्ठ से यह प्रार्थना की, “यो मे अन्नं, मे रसं, श्रेष्ठां वाचा जिंघासति/ इंद्रश्च तस्मा अग्निश्च अस्त्रं हिंकारमस्यताम्।” जो मेरे अन्न, पान और भाषा के प्रति हिंसा का भाव रखते हैं, हे इंद्र! उनपर बज्र से प्रहार करो, हे अग्नि उन्हें भस्म करो।
आइए, सरस्वती पर्व के अवसर पर शताब्दी के गहराते संकटऔर हुड़दंगों के बीच हम उनसे यह प्रार्थना करें कि ‘श्रुतं मे गोपायः’ अर्थात् हमारे श्रुत की रक्षा करो, हमारे अधीत विद्या की रक्षा करो। सरस्वती से की गई यह आर्त्त प्रार्थना ही हमारी इच्छाशक्ति को चपटा और बेडौल तथा हमारे रुचिबोध को विकृत होने से बचाएगी। वसंत पंचमी के पावन पर्व पर हम यह कामना करें कि इस शताब्दी के आने वाले समय में हमारे अन्न और जल स्वादिष्ट हों, हमारी भाषा और हमारे विचार प्रदूषणमुक्त हों, सहज, ऋजु और पवित्र हों।

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