Bihar Election : नीतीश का जलवा बरकरार या तेजस्वी का तेज…….!

Madhukar Srivastava
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Bihar Election : बिहार में मतदान खत्म हो चुका है। अब वोटो की गिनती की बारी है। एक कहावत है “ए नाई कितना बाल, मालिक काट के गिरा दे तानी – अपने पता चल जाई कपार में कितना बाल रहे…! बस एक दिन और यानी 14 नवंबर। और तमाम पॉलिटिकल पार्टियों की बेकरारी खत्म हो जाएगी।

एक टूल जो रिलायबल नहीं है। सो, इन पर बात करना समय की निहायत बर्बादी है। असल चीज है ये जानना कि अंदर क्या चला है। मतदान के बिहेवियर को प्रभावित करने वाली परिस्थितियां और कारक कौन-कौन रहे। दोनों ग्रुप की जमीनी बात आपके सामने रख रहा हूं। आप इसे ध्यान से पढ़िए। मनन करिए। मंथन करिए, अपने आप पिक्चर क्लियर हो जाएगी।

  • महिलाएं बिहार में नीतीश कुमार की वोट बैंक बन चुकी हैं, जिनको भरोसा है कि नीतीश हैं मतलब शांति है, सुकून है। गांव की महिलाओं का कहना था कि नीतीश सबकुछ दे रहलो छै, शांति रो वातावरण छै, आरु की चाहियो? मनीष कुमार (धोरैया उम्मीदवार) के हमे नै चिन्हय छिये, हम्मे नीतीश आरु मोदी के चिन्हय छिये।
  • राजद के नीचे का इकोसिस्टम अभी भी नहीं बदला है- ‘जीत लेने दो, देख लेंगे’ वाला। ‘हमी तो तुम्हारी जाति का विधायक बना दिये, कभी जीता सम्राट आरजेडी के बिना वाला।’ आदि। इसी जमीनी हकीकत को पकड़कर आगे बढ़ते हैं।बिहार विधानसभा चुनाव में मुख्यतः मुकाबले में दो ग्रुप रहे — एनडीए और महागठबंधन। बिहार के जीवन के सभी स्तरों पर दोनों एक-दूसरे के खिलाफ अपनी पूरी ताकत से हमलावर रहे। मोकामा रक्तरंजित रहा, कारण चाहे जो भी रहे हों। चुनाव आयोग की तारीफ यह है कि बिहार में अभूतपूर्व मतदान प्रतिशत में इजाफा करने में वह कामयाब रहा है। महागठबंधन की हार की स्थिति में चुनाव आयोग का एक बार फिर निशाने पर आना तय है। फिलहाल लाख टके का सवाल — बिहार में आएगा कौन? इसका जवाब ईवीएम में कैद है।

आरजेडी का अपना वोट कंसोलिडेट रहा है — कोर वोट। लेकिन मुसलमान दरका है। इसका असर संख्या पर पड़ना तय है। भाजपा से दूरी बनाए रखने वाले मुसलमान नीतीश कुमार को बेहतर नेता मानते हैं, यदि भाजपा पर नीतीश की बढ़त और पकड़ को वे बेहतर समझते हैं। लालू यादव और उनके पुत्रों से इनका मोहभंग हुआ है। कुछ ठगे-ठगे और छले-छले से महसूस कर रहे हैं, साथ ही यह भी देख पा रहे हैं कि नीतीश कुमार उनके लिए ज्यादा मुफीद हैं। भाजपा को नियंत्रित भी करेंगे और उन्हें सुरक्षित भी रखेंगे। उन्हें पता है, नीतीश कुमार अपने कोर वैल्यू से कभी समझौता नहीं करते।

महिलाओं का वोटिंग पैटर्न दिलचस्प रहा। कुल मत प्रतिशत में अप्रत्याशित इजाफा दर्ज किया। कतारों में खूब नजर आईं — ग्रामीण रूट लेवल से लेकर म्युनिसिपल स्तर तक। उत्साहित दिखीं, और वोट के बाद काली स्याही से सेल्फी बनाती नजर आईं। महिलाओं के लिए यह पूरी तरह से उत्सव था। चुनाव आयोग ने भी इसे उत्सव बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। उन्हें वोट देने के लिए लगातार जागरूक करता रहा। बड़ी संख्या में वे तीर चला रही थीं, कुछ ललटेन को भी दबा रही थीं। लेकिन झुकाव तीर की तरफ ही था। ललटेन में महिलाओं का तेल कम पड़ा, तीर के साथ वे अपना सेल्फ-डेवलपमेंट देख रही थीं। दस हजार मिलने के बाद दो लाख रुपये की लालच भी उन्हें लुभाता रहा।

चाचा पर भतीजे के इंसल्टिंग हमलों ने ओल्डर वोटर्स को भतीजे के खिलाफ कॉन्शस किया। “खटारा हैं”, “चलने वाले नहीं हैं”, “थकेले हैं”, “पलटू मार हैं”, “दूसरों की गिरफ्त में हैं”, वगैरह-वगैरह जैसे शब्दों ने ओल्डर वोटर्स के पैटर्न को प्रभावित किया। यह उनके बीच पसंद नहीं गया। हां, नौकरी के नाम पर युवाओं को प्रभावित किया, लेकिन “हर घर के एक सदस्य को सरकारी नौकरी” की बात ने उन्हें हल्का भी बनाया। उन युवाओं के बीच असर नहीं था। चुनाव के दौरान “कट्टा मारबऊ”, “गोली मारबऊ”, “चले न देबऊ”, “रंगदारी करबऊ” जैसे शब्दों ने भी उन्हें बिदका दिया। उनके शुभचिंतक गायकों और नचनियों ने ही उनकी लंका में आग लगाने का काम किया। हो सकता है कि इस तरह के कंटेंट उनके खिलाफ प्लांट किए गए हों, और उनकी बदलती छवि को उनके लिगेसी के साथ जोड़कर झलक दिखाने की कोशिश की गई हो। इस संदर्भ में डिजिटल मीडिया को एक चैप्टर के तौर पर संलग्न किया जा सकता है, यदि इस पर शोध किया जाए तो। प्रधानमंत्री मोदी ने भी इस नस को दबाने में कोई कोताही नहीं की। विकास की आंधी तो अखबारों, सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्मों, टीवी चैनलों पर उड़ ही रही थी, जमीन पर भी लोग बेहतर बिजली, सड़क और पुल-पुलियों के साथ इसका स्वाद चख ही रहे हैं।

कुछ लोग सेंट्रल के साथ बिहार के डिसकनेक्शन को स्वीकार करना पसंद नहीं कर रहे थे। चक्का जाम होने देने के पक्ष में नहीं थे। उनकी नजर में यदि चक्का जाम नहीं भी होगा तो विकास की रफ्तार कम ही जाएगी। उनके लिए मुख्यमंत्री के तौर पर तेजस्वी पसंद नहीं थे। मुकेश सहनी को डिप्टी सीएम बनाने की उनकी स्वीकृति से नापसंदगी की मात्रा में कुछ और वृद्धि हुई। मीडिया के दफ्तर में अपने कार्यकर्ताओं से आग लगवाने की धमकी यदि वे कुछ समय पहले दे चुके होते, तो निश्चित तौर पर इस नुकसान को आरजेडी नहीं झेल पाती — नॉकआउट हो जाती।

नीतीश जी को मुख्यमंत्री बनने की बधाई दी जा सकती है। भतीजे पर हर लिहाज से भारी पड़े। लोगों को एक सुर में समझाते रहे कि “कुछ था बिहार में, सब कुछ हम ही ने किया है।” भतीजा उनकी उम्रदराजी पर अटका रहा, उनकी कार्यक्षमता पर सवाल उठाता रहा, उनके लिए ऐसे-ऐसे शब्दों का प्रयोग करता, जो शायद वह अपने पिता के लिए कभी न करे। इस विषय पर पूरी तरह से खामोश रहकर काम करते हुए उन्होंने वॉकओवर नहीं लेने दिया।

पीके को 446 सीटें आती दिख रही हैं, कुछ वोट काटेगा। इसकी हालत “दुकान अच्छी सजाई थी, चली नहीं” वाली होगी। फिर यह माल शायद नया प्रयोग करते नजर आएंगे। ये भी तेजस्वी यादव की तरह नीतीश जी के शरण में रह चुके हैं।

ये सारी बातें नजूमत के लिहाज से नहीं कही जा रही हैं, बस एक आकलन हैं — इंटरप्रिटेशन हैं — पोलिटिकल बिहेवियर को समझते हुए परिणाम तक पहुंचने की कोशिश मात्र है। तस्वीर उलटी हो सकती है, लेकिन होगी नहीं।

बाकी त रघुनाथ जी जाने….।

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