Congress Karnataka Crisis : कर्नाटक में कांग्रेस का नाटक राजस्थान की राह पर चल निकला है। सरकार के खिलाफ कांग्रेस के विधायकों में ही असंतोष लगातार बढ़ रहा है। विधायक दो धड़ों में बंट गए हैं और इसके चलते जनता के काम नहीं हो पा रहे हैं। दरअसल, गहलोत-पायलट की तरह कर्नाटक में भी ढाई साल के फार्मूले को लेकर सीएम सिद्धारमैया और डिप्टी सीएम डीके शिवकुमार आमने-सामने आ गए हैं। इस राजनीतिक संग्राम का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि राजस्थान में जहां मल्लिकार्जुन खरगे लड़ाई को खत्म कराने के लिए हाईकमान के दूत बनकर आए थे, वहीं कर्नाटक में उनकी तमन्ना है कि कांग्रेसियों के बीच की यह लड़ाई और तेज हो जाए। सियासत की यह अदावत इतनी बढ़ जाए कि उसमें खरगे के पुत्र को सीएम बनाने का रास्ता निकल आए। पॉलिटिकल एक्सपर्ट्स मानते हैं कि खरगे अपने बेटे प्रियांक खरगे को मुख्यमंत्री पद की दौड़ में लाना चाहते हैं, इसलिए वो सिद्धारमैया और शिवकुमार के बीच लड़ाई को अपरोक्ष रूप से बढ़ाए रखना चाहते हैं।
कर्नाटक की राजनीति इस समय उस पुरानी कहावत का जीवंत उदाहरण बन गई है—”दो बिल्लियों की लड़ाई में बंदर का फायदा।”
मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और उपमुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार के बीच कुर्सी की खींचतान अब किसी से छिपी नहीं है। सरकार का 2.5 साल का कार्यकाल पूरा होते ही सत्ता हस्तांतरण की चर्चा चरम पर है।
लेकिन इस शोरगुल के बीच, एक शांत लेकिन गहरी चाल चली जा रही है। जो पटकथा दिल्ली में लिखी जा रही है, उसमें ताज न तो सिद्धा के सिर पर सुरक्षित दिख रहा है और न ही ‘रॉक’ कहे जाने वाले डीके शिवकुमार के पास आता दिख रहा है।
इशारे साफ हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे अपने पुत्र प्रियंक खड़गे के लिए पिच तैयार कर रहे हैं।
कांग्रेस पार्टी के इतिहास और वर्तमान कार्यशैली को देखें, तो एक स्पष्ट पैटर्न नजर आता है। जब भी किसी राज्य में कोई क्षेत्रीय क्षत्रप बहुत मजबूत होने लगता है—जिसका अपना जनाधार हो और जो दिल्ली दरबार के इशारों पर नाचने के बजाय अपनी शर्तें मनवाए—तो गांधी परिवार असुरक्षित महसूस करने लगता है।
हाईकमान को हमेशा ऐसे मुख्यमंत्री की तलाश रहती है जो ‘जनाधार’ से ज्यादा ‘वफादारी’ पर निर्भर हो।
याद करिए पंजाब की राजनीति का वो दौर जब कैप्टन अमरिंदर सिंह वहां के एक कद्दावर नेता थे। दिल्ली दरबार ने उन्हें हटाकर चरणजीत सिंह चन्नी को कुर्सी दी। तर्क दिया गया ‘दलित चेहरा’, लेकिन असल मंशा थी एक ऐसे व्यक्ति को बिठाना जो हाईकमान का हुक्म मानने को मजबूर हो, क्यूंकि अमरिंदर सिंह राहुल सोनिया को ठेंगे पर रखते थे ।
हिमाचल में वीरभद्र सिंह का परिवार (प्रतिभा सिंह और विक्रमादित्य सिंह) सत्ता का स्वाभाविक दावेदार था। लेकिन हाईकमान ने सुखविंदर सिंह सुक्खू को चुना—एक ऐसा नेता जिसका अपना कोई जनाधार नहीं था, ताकि रिमोट कंट्रोल दिल्ली के हाथ में रहे।
याद है ? ओडिशा का वो ‘बैंड मास्टर’ जब कद्दावर जे.बी. पटनायक को हटाकर गिरिधर गमांग को कमान सौंपी गई थी। गमांग अपनी राजनीतिक पकड़ से ज्यादा तबला, चंगु, धपा आदि वाद्ययंत्रों को #ग्रामीण उत्सवों और शादी ब्याह में बजाने और नाचने के लिए जाने जाते थे।
किन्तु इस प्रयोग ने ओडिशा में कांग्रेस को हाशिए पर धकेल दिया।
इस महीने कर्नाटक सरकार के ढाई साल पूरे हो चुके हैं। 2023 में जीत के वक्त जो कथित ‘शर्त’ थी, उसके अनुसार अब डीके शिवकुमार की बारी होनी चाहिए। सिद्धारमैया अब ‘मुडा घोटाले’ और उम्र के चलते कमजोर पड़ चुके हैं। हाईकमान को उन्हें हटाने का बहाना मिल गया है।
डी.के. शिवकुमार स्वाभाविक उत्तराधिकारी हैं, उन्होंने पार्टी के लिए संसाधन और संगठन दोनों जुटाए। लेकिन, हाईकमान उन्हें सीएम बनाने से कतरा रहा है। क्यों? क्योंकि डीके शिवकुमार एक ‘दबंग’ नेता हैं।
अगर वे सीएम बन गए, तो वे वाई.एस.आर. रेड्डी या अमरिंदर सिंह की तरह स्वतंत्र हो जाएंगे। गांधी परिवार को डर है कि डीके को कंट्रोल करना मुश्किल होगा। इसलिए उन पर चल रहे ED/CBI के मुकदमों का बहाना बनाकर उन्हें साइडलाइन किया जा रहा है।
यहीं पर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की भूमिका संदिग्ध और रणनीतिक हो जाती है। खड़गे खुद तीन बार (1999, 2004, 2013) कर्नाटक का सीएम बनते-बनते रह गए थे।
अब जब वे पार्टी के सबसे पावरफुल पद पर हैं, तो वे अपने बेटे प्रियंक खड़गे के जरिये वह सपना पूरा करते दिख रहे हैं।
कुछ हफ्तों पहले प्रियंक खड़गे ने सरकारी स्थानों पर RSS की शाखाओं पर प्रतिबंध लगाने की मांग की और बहुत आक्रामक तेवर दिखाए। यह एक सामान्य मंत्री का बयान नहीं था, बल्कि इस बयान के जरिए प्रियंक को एक ‘कट्टर सेक्युलर’ और ‘तेज-तर्रार दलित नेता’ के रूप में प्रोजेक्ट किया गया।
मकसद ? सिद्धारमैया ‘पिछड़ा वर्ग’ (OBC) के नेता हैं और डीके शिवकुमार ‘वोक्कालिगा’ हैं। डीके को रोकने के लिए कांग्रेस को एक मजबूत ‘दलित कार्ड’ की जरूरत है। प्रियंक खड़गे उस खांचे में एकदम फिट बैठते हैं।
वर्तमान परिदृश्य कुछ ऐसा बन रहा है कि मुडा स्कैम और एंटी-इनकंबेंसी का हवाला देकर सिद्धारमैया को हटाया जाएगा। लेकिन डीके को रोका जाएगा, यह कहकर कि “आप पर केस चल रहे हैं, इससे सरकार अस्थिर होगी” या “दलित सीएम की मांग ज्यादा है।
एक युवा, दलित और हाईकमान के वफादार के रूप में प्रियंक खड़गे को ‘कॉम्प्रोमाइज कैंडिडेट’ (सहमति का उम्मीदवार) बनाया जा सकता है। डिप्टी सीएम के पद पर डीके शिवकुमार को बनाए रखा जा सकता है।
यह कांग्रेस की पुरानी ‘परिपाटी’ का क्लासिक उदाहरण है। हाईकमान डीके शिवकुमार जैसे ‘बाहुबली’ को सत्ता सौंपने का जोखिम नहीं उठाना चाहता।
