Earth day: पृथ्वी दिवस

Niranjan Srivastava

Earth day: हमारी संस्कृति में पृथ्वी को माता के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। हमारे यहाँ ग्राहस्थ्य अनुष्ठान में षोडश मातृका के पूजन का विधान है। इन सोलह माताओं में एक हैं लोकमाता। लोकमाता यानी हमारी धरती, यह पृथ्वी। हम सभी उसीके पुत्र हैं। अथर्ववेद के एक श्लोक में कहा गयज़ है-‘माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या:।’ अथर्ववेद के भूमिसूक्त कहता है-

  'यत् ते भूमे विखनामि क्षिप्रंतदपि रोहतु।
   मा ते मर्मविमृगवरि मा ते हृदयमर्पिपम ।।

 हे धरती माता! जब हम औषधियाँ, कन्द आदि निकालने के लिए अथवा बीज बोने के लिए अथवा खनिज निकालने के लिए आपको खोदें वे शीघ्र उग आयें, उनकी क्षतिपूर्ति हो। अनुसंधान के क्रम में अथवा किसी भी अन्य प्रकार से हमारे द्वारा आपके मर्मस्थल अथवा हृदय को कोई हानि नहीं पहुँचे।

 एक अन्य मंत्र में कहा गया है-'अवतां त्वा द्यावा पृथिवी अव त्वं द्यावा पृथिवी' अर्थात् यदि हम आकाश और पृथ्वी की रक्षा करेंगे तो आकाश और पृथ्वी हमारी रक्षा करेंगे। पर्यावरण संरक्षण के क्रम में पृथ्वी को औषधियों की माता भी कहा गया है-'विश्वस्वं मातरमोषधिनाम्।'

 शास्त्रों में निर्धारित हमारे नित्य-कर्मों में सर्वप्रथम भूमि-वंदना का विधान है। शय्या से उठने के पश्चात् पृथ्वी पर पैर रखने के पूर्व पृथ्वी माता का अभिवादन कर उनपर पैर रखने की विवशता के लिए निम्नलिखित श्लोक के पाठ का विधान है-

 समुद्रवसने   देवि   पर्वतस्तमण्डिते।
 विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे।।

समुद्ररूपी वस्त्रों को धारण करने वाली,पर्वतरूप स्तनों से मण्डित विष्णु की पत्नी पृथ्विदेवि! आप मेरे पादस्पर्श को क्षमा करें।

 हमारे शास्त्र में पृथ्वी को ग्रह माना गया है और सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, वृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु के साथ-साथ पृथ्वी की प्रार्थना की गई है। 

  हमारे यहाँ यज्ञ, पूजा और धार्मिक कृत्यों की समाप्ति पर शांतिपाठ का विधान है-'द्यौ शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः पृथ्वी शान्तिरापः शान्ति रोषधय: ...।'आकाश में, अंतरिक्ष में, जल में, औधियों में, वनस्पतियों में, सभी देवताओं में, ब्रह्मांड में और पृथ्वी पर शांति हो। इससे पता चलता है कि हमारे ऋषि-मुनि और चिंतक पृथ्वी को कितना महत्व देते थे और उसकी रक्षा के लिए कितना तत्पर रहते थे।

 पृथ्वी दिवस के अवसर पर प्रस्तुत है एक पुरानी रचना

विकास के रथ में
जोत दिए गए हैं
प्राविधिकी और बाजार
भूमि, जल और जंगल
आकर्षक विभ्रम
और चालाकी भरे झूठ से
सज्जित है यह रथ
जिधर-जिधर से गुजरा है रथ
छोड़ता गया है
अपने गुजरने का निशान!

विकास के जरा से स्पर्श से
गुम हो गए हैं-
खेत, पथार और खलिहान
धान के खेतों में
चारों तरफ उग आये हैं
लोहे और कंक्रीट के
घने जंगल!
कहाँ उतरेगा
अब अगहन का महीना
क्या होगा
भगवान कृष्ण के उस कथन का
‘मासानां मार्गशीर्षोहं!’

विकास के चपेट में
एक झटके में
गुम हो गए ताल और पोखर
बूँद-बूँद पानी के लिए
तरस रहे हैं नलकूप
मैली हो गईं नदियाँ
बह रहा उसमें कचरा
शहरी और
ओद्योगिक अवशिष्ट का
जीवन-दायिनी नदियाँ
जूझ रहीं अपने अस्तित्व के लिए
बदहवास हैं,
मछली की तरह स्वयं तड़पती हैं रेत में!

विकास के नाम पर
नियोजित ढंग से जारी है
पृथ्वी की प्राकृतिक संपदा की लूट
एक के बाद एक
कट रहे हैं पेड़
शहर दबे पांव बढ़ रहा
जंगल की ओर
जानवर बदहवास हैं
कटते जंगल से बाहर निकल
क्या रहना होगा उन्हें
आदमियों के साथ!

जिधर से गुजरता है
विकास का रथ
हवाएँ बदल जाती हैं
मौसम बदल जाता है
पहाड़, चिड़िया और दरख़्त
गुम हो जाते हैं
रह जाते हैं
उजड़ते जंगल,
सूखते-दरकते तालाब
पलायन करते परिंदे
विस्थापन का दंश झेलते
अपनी जड़ों से उन्मूलित कर दिए गए लोग
असमानता की लगातार चौड़ी होती खाई
ज़िन्दगी बचाने में
हाँफता
मानव समाज का बहु बड़ा वर्ग
प्रकृति और सम्पूर्ण जैविकी
और चमकते पीले-पीले आसमान में
रह जाता है
एक धुंधला-सा साया!

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