Janmashtami : कृष्ण का जन्म ही अनुष्ठान है, कृष्ण का जीवन ही उत्सव है

Bindash Bol

पुरुषोत्तम प्रतीक

Janmashtami : भाद्रपद मास का कृष्ण पक्ष, चहुँओर अँधियारे का साम्राज्य है, घनघोर वृष्टि से पृथ्वी जलमग्न हो रही है, आकाश को घेरे काले बादलों ने अंधियारे को और भी गहरा कर दिया है, बीच-बीच में कड़कती बिजली इन्द्र के व्रज सी गगन को भेदती पृथ्वी को प्रकम्पित कर जाती है, उसपर मथुरा में कंस का अंधियारा भरा साम्राज्य, अत्याचारों की पराकाष्ठा से राज्य त्राही कर रहा है, कठोर कारागार में बंद देवकी और वासुदेव के सात पुत्रों को शैशवावस्था में ही निर्दयता से मारा जा चुका है, ऐसे में भाद्रपद, कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि की मध्यरात्रि को माँ देवकी के गर्भ से प्रभु प्रकट होते हैं!!
अँधियारा जितना गहन होगा, प्रकाश की दीप्ति उतनी ही प्रकट होकर आभामय होगी। नकार की गहनता सकार को श्रेयस रूप में प्रकट होने के लिए भूमि तैयार करती है! वरना क्या संभव था कि अत्याचार इतनी सीमाओं को लाँघता! वह बहुत पहले अस्तित्वविहीन किया जा सकता था. मगर जब कृष्ण जैसे विराट अवतार को प्रकट होना हो, जब कन्हैया स्वयं बालक रूप धरने वाले हों, जब पृथ्वी पर सौ सूर्यों का तेज़ एक साथ प्रकट होना हो तो अंधियारे को तो गहन होना ही होगा। इसलिए कृष्ण के जन्म के समय इतने अंधियारे और भयावह समय का रूपक प्रकृति द्वारा रचा गया है. क्योंकि मनुष्य, देव, दानव, गंधर्व, किन्नर किसी के द्वारा किया जाने वाला अत्याचार, फैलाया जाने वाला अँधेरा उतना गहन नहीं हो सकता जितने को मिटाने के लिए कृष्ण जैसी आभा की आवश्यकता हो. इसलिए कृष्ण के जन्म के समय गहन अँधेरे के असंख्य रूपक प्रकृति ने रचे हैं. यूँ भी कृष्ण की विराट आभा के समक्ष कोई भी अँधियारा अर्थहीन हो होगा, कोई भी अति सामान्य ही होगी. और वह हुआ भी. कृष्ण के प्रकट होते ही, कारागार के द्वार खुल गए, देवकी वासुदेव के बंधन टूट गए, समय का रथ ठहर गया, संसार प्रकाशमान हो गया.
कृष्ण के लिए यह सब बेहद सामान्य है. कृष्ण जन्म के साथ से ही यह सूचना देते आ रहे हैं कि वे असाधारण हैं. वे जन्म के साथ ही अपने दिव्य स्वरूप को प्रकट करते हैं. उनका जीवन चमत्कारों से भरा है. वे स्वयं को साधारण दिखाने का प्रयास भी नहीं करते। बल्कि यह कहें कि उनकी प्रभा इतनी द्युतिमान है कि वह लाख प्रच्छन्नताओं के बाद भी प्रकट होती है, उसे रोका नहीं जा सकता। वह समय और काल की बाध्यताओं को नहीं स्वीकारती । कृष्ण का व्यक्तित्व इतना विराट है कि वह साधारण घटनाओं के दायरे में नहीं समाता। इसलिए कृष्ण के पृथ्वी पर अवतरित होने का उद्देश्य सामान्य नहीं है. कृष्ण कंस को मारने के लिए प्रकट नहीं होते, वह उनके लिए बेहद सहल कार्य था. और न ही कंस उनके जन्म का उद्देश्य है. जिस प्रकार विष्णु के अन्य अवतारों का उद्देश्य किसी आसुरी शक्ति को समाप्त करना था, इस तरह का कोई उद्देश्य कृष्ण के जीवन में नहीं है. इसलिए कंस को मारने में किसी प्रकार की विशेष वीरता और महानता का संदर्भ नहीं है. और न ही कृष्ण को कंस के युति विलोम में देखा जाता है. कृष्ण-कंस के मध्य किसी भीषण युद्ध की भी चर्चा नहीं है. कृष्ण अपने 1 महीने की उम्र में ही पूतना को मार देते हैं, 3 महीने में शकटासुर, 1 वर्ष में तृणावर्त, 2 वर्ष में वत्सासुर, 4 वर्ष में बकासुर, 5 वर्ष में अघासुर, 5 वर्ष में ही कालिया मर्दन, 6 वर्ष में धेनुकासुर, 7 वर्ष में गोवर्धन उठाकर इंद्र का अभिमान तोड़ते तथा 11 वर्ष में कंस का वध कर देते हैं. इन सारे वृहत कार्यों को करने में उन्हें किसी प्रकार की विशेष शक्ति की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि हँसते-खेलते सामान्य जीवन की घटनाओं के साथ वे इन आसुरी शक्तियों से भी निपटते जाते हैं. इसमें किसी अतिरिक्त आयोजन की आवश्यकता तक नहीं पड़ती. उनकी क्षमता अनंत है, अनिर्वचनीय है, वे ही ब्रह्म हैं और वे ही जगत. वे ही सुर भी हैं, असुर भी, वे ही आदि भी और अंत भी.
परंतु एक ही साथ वे जितने अलौकिक हैं उतने ही लौकिक भी. वे जिस तरह बाल रूप धर लीलाएँ रचते हैं वह अद्भुत है. उनका जीवन किसी उद्देश्य को योजित नहीं हैं, वह तो जीवन की संपूर्णता को समर्पित है. वह जब बालक के स्वरूप में हैं तो सम्पूर्ण रूप से बालक हैं. उतने ही निर्मल, उतने ही नटखट, उतने ही सरल, उतने ही हठी. बालक के व्यक्तित्व का कोई हिस्सा उनसे अछूता नहीं है. इसलिए सभी उनसे इतना प्रेम करते हैं. कृष्ण के प्रति प्रेम, उनके ऐश्वर्य की उपासना नहीं है, बल्कि कृष्ण की कोई भी उपासना नहीं है, कृष्ण के प्रति केवल प्रेम है. इसलिए कृष्ण को लेकर किसी तरह का अनुष्ठान निरर्थक होगा, उनके लिए तो प्रेम ही समग्र अनुष्ठान है. गोपियाँ उनके चमत्कारों और ईश्वरत्व पर आकर्षित नहीं होतीं, वे उनकी मासूमियत पर मोहित हैं , उनकी निर्मलता ने उन्हें आकृष्ट कर लिया है, उनकी सादगी और उनकी समग्रता उन्हें खींचती है. आज भी स्त्रियाँ कृष्ण के प्रेम में वैरागी हो सकती हैं, उनके लिए संसार त्याग सकती हैं, लोक-लाज ताज सकती हैं, मीरा राजमहलों को छोड़ वन-वन भटक सकती है, कृष्ण के प्रेम में दीवाना हुआ जा सकता है. स्त्रियाँ शब्द का उल्लेख इसलिए किया कि स्त्रियाँ ही अब भी प्रेम को परख सकती हैं, पुरुष में अभी भी गणित हावी है. इसलिए स्त्रियाँ कृष्ण के प्रेम में पड़ें तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि कृष्ण प्रेम की ही मूरत हैं. कृष्ण को प्रेम से ही पाया जा सकता है. कृष्ण ही प्रेम हैं.
कृष्ण इकलौते ऐसे अवतार हैं जो हमेशा बाल्यावस्था में हैं. ऐसा नहीं कि उन्होंने पृथ्वी के नियमों को त्याग दिया, वे भी समय के साथ बढ़ते हैं, परन्तु बाल्यावस्था में ही वे उतने समग्र हैं कि हमें उससे आगे बढ़ने की इच्छा ही नहीं होती। उतने ही प्यारे , उतने सुन्दर, उतने हठी. और वे भी बाल्यावस्था में प्रेम को उतना ही प्रेम समर्पित करते हैं. कृष्ण के बाल स्वरूप लड्डू गोपाल पर दुनिया के सारे नियम लागू होते हैं, उन्हें भूख लगती है, उन्हें ठंढ लगती है, उन्हें बुखार होता है, बस उनकी उम्र नहीं बढ़ती। कितना प्यारा रूपक है यह. वे हमेशा बालक हैं. उनका बालपन समग्र है. उससे आगे जाने की आवश्यकता नहीं। वे उस स्वरूप में प्रेम पर रीझ जाते हैं जिस स्वरूप में हम प्रेम को लुटा सकते हैं. उन्हें भूख लगती है कहते हुए भी दुनियावी नियमों के अर्थ में गणितीय तात्पर्य तो यही है कि वे खाते नहीं परन्तु उन्हें भूख लगती है यह सोचकर हमारे मन में जो उनके प्रति प्रेम का भाव उमड़ा यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है. उन्हें बुखार लगी होगी यह सोचकर बेचैन हो जाना ही तो प्रेम है. प्रियतम के विछोह को याद कर रो लेना ही तो प्रेम है. यही प्रेम का सार है. कृष्ण इसी प्रेम में हैं, कृष्ण प्रेम से हैं.
कृष्ण का इस पृथ्वी को लेकर कोई उद्देश्य नहीं है. उनकी आभा इतनी विराट है कि इस पृथ्वी के लिए उनका कोई भी उद्देश्य नगण्य ही होगा। इसलिए उनके जीवन को हम लीला कहते हैं. वे किसी दैत्य का वध करने हेतु इस पृथ्वी पर आएँ, इतनी छोटी अपेक्षा हम भी उनसे नहीं रखते। वे हमारा प्रेम स्वीकारें यह बहुत है, वे हमारे माखन चुराएँ और हम उन्हें बांधें यह काफी है. वे हमें दीवाना बना जाएँ, हम वन-वन घूम उनके लिए तड़पें यह पर्याप्त है. वे हमेशा हमारे पालने में बच्चे बनकर झूलें, हम उन्हें बच्चों की तरह खिलाएँ, उनके कपड़े बदलें, उनका ख़याल रख सकें, उन्हें चूम सकें यह बहुत है.
यही कारण है कि कृष्ण के जन्म का अनुष्ठान है. इसके बाद की सभी घटनाओं का बहुत अर्थ नहीं, वह सब उनके सामान्य जीवन का हिस्सा है. कृष्ण का जीवन ही उत्सव है, वही प्रेक्षणीय है, वही लीला है, वही उत्सव के योग्य है. राम के जीवन में सबसे महत्त्वपूर्ण घटना उनका रावण को मारकर, विजयी हो अयोध्या लौटना है, इसलिए हम दिवाली और विजयादशमी मनाते हैं, शिव के जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना उनका विवाह है, इसलिए हम शिवरात्रि मनाते हैं, परन्तु कृष्ण का तो जन्म लेना ही पर्याप्त है. कृष्ण इस धरा पर आए यही महत्त्वपूर्ण है. यही अभिनव है, यही अद्वितीय।

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