डॉ प्रशान्त करण
(आईपीएस)
kalaphadaaree रांची : मेरा दावा है कि हमारी नई पीढ़ी न तो गेल्हा के बारे में और न कलफदारी के बारे में जानती है। इसलिए मैं यह नैतिक जिम्मेवारी स्वीकार करता हूँ कि उन्हें इनके बारे में बता कर ही रहूंगा,चाहे उनकी रुचि हो या न।हम नई पीढ़ी के नहीं हैं।कुछ वर्षों पहले इससे बाहर कर दिए गए हैं।पुरानी पीढ़ी के भी नहीं है और उनलोगों ने मुझे कभी स्वीकार भी नहीं है। अपनी स्थिति कुल मिलाकर त्रिशंकु वाली है। न नई पीढ़ी स्वीकार करती है और न ही पुरानी पीढ़ी।बस अटक गया हूँ,लटक गया हूँ, लगाकर सीढ़ी।
तो मैं अपनी बात अब गेल्हा से प्रारम्भ करता हूँ। गेल्हा वह कला थी जो मलमल के सफेद कुर्ते की कलफदार बाजुओं पर चुन्नट दिया करती थी। इस कला में सीपी के प्रयोग से बड़े मनोयोग से धोबी जी गेल्हा किया करते थे। चुन्नटों में एक लहर हुआ करती थी।गेल्हेदार मलमल के सफेद कुर्ते के साथ महीन धोती सजा करती थी। कालांतर में पजामे के साथ कुछ वर्षों तक निभा। लखनवी टोपियों में भी ऊपर चन्दवे पर गेल्हे का रिवाज नवाब और जमींदार साहब लोग किया करते थे। उधर नवाबी,जमींदारी गयी तो गेल्हा भी कुछ वर्षों तक घसीट कर चला और फिर विलुप्त हो गया।आजकल के धोबियों को शायद ही यह कला मालूम हो। गेल्हे में अमीरी,विनम्रता,सिर पर हाथ रखने वाला, मुसीबत के समय का सहारा, हर समस्या में साथ दे कर उसका समाधान करने वाला छिपा रहता था। गेल्हा नज़ाकत देती थी। विनम्रता देती थी।सौम्यता और इंसानियत देती थी। संभ्रांतों की शान हुआ करती थी। यह बताने के भी काम आती थी कि हमारी औकात अब गेल्हे वाली हो गयी है। गर्मी की शाम हो,लोगों का जमघट हो और गेल्हा न हो, मुमकिन ही नहीं था।गेल्हे वाली बाजू बड़ी मजबूत हुआ करती थी। मुहल्ले में कोई बीमार हुआ और इलाज कराने की हालत नहीं हो,किसी की कन्या का विवाह ठीक हो और आर्थिक स्थिति के कारण परेशानी हो,किसी को अकस्मात कोई समस्या आ खड़ी हुई हो,आपसी झगड़े में कोर्ट-कचहरी की नौबत आई हो,गेल्हे वाले बाजू कुर्ते की बगल वाली ज़ेब में अनायास ही चले जाते और फिर मुठ्ठी बाहर निकल आती और अगले की हथेली में खुल जाती।मदद हो जाती।गेल्हे वाले बाजू यह काम चुपचाप करते,कोशिश करते कि कोई देखे नहीं।नहीं तो हथेली वालों की इज्जत कौन रखेगा।गेल्हे वाले बाजुओं के नीचे वाले हिस्से यानी कलाई में मोगरे की माला खास मौकों पर जमींदारों, नवाबों के द्वारा धारण की जाती थी जब वे मनोरंजन के लिए किसी कोठे की सीढ़ियां चढ़ते।सीढ़ियों से ही दादरा,ठुमरी आदि संगीत की मधुर स्वर लहरी गुंजती।गेल्हे के बाजू बनारसी पान खाने के भी उठते।उन बाजुओं के कंधे वाली छोर पर इत्र इस तरह लगाए जाते थे मानों पाँवों में पाजेब।होली,ईद आदि त्योहारों के पहले ही गेल्हे वाले सफेद मलमली कुर्ते तैयार करा कर रख लिए जाते थे।अब यह सिर्फ स्मृतियों में रह गए।
कलफदारी अभी तक डटी हुई है।आजकल बकायदा खादी पहनने वाली प्रजातियों में यह बहुतायत से देखी जाती है।कलफदारी कड़क होती है।इसमें धार होती है।ताकत होती है।कड़ेपन के कारण उदण्डता अपने आप ही इसमें ऐसे समा जाती कि पहनने वाले को पता भी नहीं चलता।कलफदारी नेतागिरी देती है।शक्ति देती है।अगर शक्तिहीन भी इसे अपना ले तो उसकी भी रीढ़ की हड्डी तन जाती है।इधर रीढ़ की हड्डी तनी,उधर जिह्वा पर नियंत्रण भी कम होने लगता है।कलफदारी में जेबें बड़ी होती चली गईं।कपड़े खाल की तरह मोटे होते चले गए।जितनी मोटी खाल,उतनी ही कलफदारी।कलफदारी गज़ब का आत्मविश्वास देती है।इतना की आप धाराप्रवाह थोथे तर्कों के साथ फर्राटे से झूठ बोल सकें।कलफदारी के पीछे बदन के पेट का हिस्सा अपने आप बड़ा होने लगता है।पहनने वालों को पता तक नहीं चलता तो देखने वालों को क्या खाक दिखेगा।इन बड़े होते पेटों की पाचनशक्तियाँ अद्भुत होती चली गयी।इनकी इतनी क्षमता होने लगी कि सड़क,पुल, मकान,ग्रांट,बजट सब इसमें पचने लगा।कलफदारी की महिमा का बखान करने में बस इतना काफी है कहना- हरि अनन्त,हरि कथा अनन्ता।