Khel Maatra Ka : खेल मात्रा का

Bindash Bol

डॉ प्रशान्त करण

आईपीएस रांची

Khel Maatra Ka : साधो ! जिसने मात्रा का खेल अच्छे से समझ लिया उसने धड़ाधड़ प्रगति करते हुए गति पकड़ ली . आज आदरणीय अग्रज डॉ बुद्धिनाथ मिश्र जी के इस दोहे से स्पष्ट करता हूँ –
घी औ मधु दोनों अमृत
दोनो प्रिय वरदान।
दोनों मिलकर विष हुए
मात्रा अगर समान।।
साधो ! जीवन की हर दिशाओं की साँसों की यात्रा में मात्रा का बड़ा असरदार महत्व है . इसने इसे गह लिया वह गहरा हो गया और ऐसी गहराई को प्राप्त हुआ कि लोग आवाक होकर देखते रह गए . इसके लिए मात्रा की साधना करनी पड़ती है .
साधो ! मात्रा भार देती है . मात्रा शक्ति देती है .भार बढ़ा देती है . शक्ति बढ़ा देती है .व्यक्तित्व की कहें तो माननीय से अधिक भार माननीया में है . सब और साब में है . लोग साहब को संक्षिप्त में साब कहते हैं . साब @साहब के पास भार है , वे सब पर भारी होते हैं . साब के पास शक्ति है . इसी शक्ति और भार के बल पर वे जनता पर सुख – समृद्धि में बहुत भारी पड़ते हैं . अपनी तूती बुलवाते हैं . मात्रा स्त्रीलिंग शब्द है . मात्रा का श्रृंगार संतुलन से होता है . श्रृंगार अधिक हो अथवा हो ही न , तब संतुलन बिगड़ता है . एक गोरा – चिठ्ठा बहुत ही आकर्षक और धनवान वर बरात लेकर समय से पहले कन्या के द्वार पँहुच गया . कन्या उस समय बिना श्रृंगार के ही पार्लर में श्रृंगार कराने अनजाने में अचानक द्वार से उसी समय निकली . वर ने उसका बिना श्रृंगार असली रूप साँवली और कुरूपा देख लिया और भाग खड़ा हुआ . श्रृंगार न रहना समस्या उत्पन्न करता है . अधिक श्रृंगार क्षणिक भ्रम ! भ्रम हमें सुख दे जाता है . साहित्य में ,मात्रिक छंदों की मात्रा का दोष काव्य को श्रृंगारहीन कर देता है . काव्य विधा के साधक मात्राओं के दम पर ही अमर रचनाएँ संसार को दे गए . मात्रा का ज्ञान बड़ा महत्वपूर्ण सदा से रहा है . लेकिन साहित्य में गौरवशाली मठाधीश परम्परा के प्रादुर्भाव के साथ ही मात्रा की साधना प्रारम्भ हुई . काव्य में भले ही मात्रादोष हो लेकिन मठाधीश के प्रति समर्पण , सेवा , भक्ति की मात्रा बढ़ाने का चलन हुआ . जिसने इस चलन में साधना की , एक से बढ़कर एक सम्मान से विभूषित होते चले गए . सही मात्रा वाले सरस्वती उपासक टापते रह गए . सफल साधाकों ने उनकी उपेक्षा भी की .मात्रा की साधना के इतिहास में यह स्वर्णिम अक्षरों में अंकित किया जाएगा .
मात्रा की साधना के साधक को उचित मात्रा का ज्ञान जितना आवश्यक है , उतना ही आवश्यक है कि मात्रा भार लगानी कहाँ है और कब तक लगानी है ताकि प्रयोजन का सौंदर्य चरम पर मिले . बिना साधना के नियम समझे ही श्रीमान क जीवन भर अपने बॉस से संबंध में मात्रा लगाते रहे . वे बढ़े भार में चमचागिरी , तलवे चाटने , झूठी प्रशंसा की मात्रा लगाते रहे और वहीं बॉस उनके काम करने के बोझ की मात्रा बढ़ाते रहे . आशय यह निकला कि बेचारे कोल्हू के बैल बनकर रह गए . उनकी बढ़ी काम की मात्रा को देख बॉस उनकी प्रोन्नति तक नहीं होने देते रहे और कहीं अन्यत्र अच्छे पद भी जाने नहीं दिया . श्रीमान ख असली साधक थे . उन्हें मात्रा की साधना के जप – नियम ज्ञात था . वे बिना कोई काम किए चापलूसी की मात्रा सटीक समय पर , सही व्यक्ति पर लगाते . उद्देश्य पूरे होते ही वे उस लगे मात्रा को हटाकर अपने लक्ष्य के अनुसार दूसरे व्यक्ति पर अभिजीत मुहूर्त देखकर तब तक लगाए रखते , जब तक संकल्प सिद्धि को न प्राप्त हो . विलम्ब होता तो वे रिश्वत , रिश्तेदारी , पैरवी और धन की मात्रा भी बढ़ा देते . परिणाम यह हुआ कि वे समय से पूर्व की प्रोन्नत होते चले गए और आज शीर्ष पद पर जाकर विराजमान हैं . साधो ! मात्रा की साधना में संवेदना , नैतिकता , धर्म , लोग क्या कहेंगे आदि चोंचलों में साधक नहीं भ्रमित होता है . विधि – विधान से , बिना किसी त्रुटि के , जिससे साधना खंडित होती हो , लगे रहने से साधक असम्भव कार्य को भी सम्भव बना डालने का बल प्राप्त कर लेता है .
अब मेरा दायित्व है कि अपने पाठकों पर उनके विद्वान् होने की मात्रा बढ़ाकर अंत इन पंक्तियों से करता हूँ – मात्रा का संतुलन सौंदर्य है और मात्रा ही सौंदर्य की मातृ है .
है मात्रा का खेल जग ,
खेलावत हैं भगवान .
जिनकी जहाँ छूटी – लगि ,
मात्रा ही बलवान !

Share This Article
Leave a Comment