Maha Kumbh 2025 : रात्रि का अंतिम प्रहर! सङ्गम तट के उस निर्जन हिस्से में कोई कोलाहल नहीं था। कुछ था अपनी धारा में अमृत ले कर बहती गङ्गा यमुना सरस्वती का पवित्र स्वर, जैसे तीन माताएं साथ बैठ कर प्रभाती गा रही हों।
ठीक उसी समय, छह देवियां उस निर्जन घाट पर पहुँचीं। अहा! देखने वालों की आंखें चौंधिया जाएं, ऐसा वैभव… अचानक नेपथ्य से प्रार्थना के स्वर गूंजने लगे… सबसे आगे चल रही देवी ने पीछे से एक का हाथ पकड़ कर खींचा और मुस्कुराते हुए बोलीं- अयोध्या बेन! अबकी तुम आगे चलो न! आज तुमसे अधिक वैभवशालिनी संसार में और कोई नहीं…
सबने मुस्कुरा कर जैसे द्वारावती(द्वारिका) की बात का समर्थन किया। नख से शिख तक रत्नजड़ित आभूषणों से सुसज्जित देवी अयोध्या के वस्त्रों से समस्त नक्षत्रों की शोभा झर रही थी। उन्होंने सकुचाते हुए हाथ छुड़ाना चाहा तो पीछे से माया(हरिद्वार) का पवित्र स्वर उभरा- सचमुच आगे चलो बहन! तुम्हारी अगुआई में चलने में हमें कितनी प्रसन्नता होगी, यह केवल महादेव जानते हैं। तुम्हारे दिन क्या लौटे, सभ्यता के दिन लौट गए…”
“अरे मैंने कहा था न! माता का वैभव उसकी संतान के पुरुषार्थ से निर्मित होता है। एक पुत्र यशश्वी हो जाय तो दिन फिर ही जाते हैं। और यही हुआ… आपका वह साधु पुत्र! अहा… जुग जुग जिये हमारा बच्चा!” यह अवंतिका का स्वर था।
देवी अवंतिका की बात सुनते ही बोल पड़ीं अयोध्या, “सच कहा बहन! युग युग जिये हमारा बेटा… पाँच सदी तक चले संघर्षों के घाव जैसे भर गए हैं। पर उसमें तुम्हारे पुत्रों का योगदान भी कम नहीं बहन द्वारावती…
पिछले कुम्भ तक सर्वाधिक वैभवशालिनी दिखी द्वारावती ने अपनी बड़ाई सुनते ही बड़ी चतुराई से बात को पलट दिया और माया से कहा, ” तुम अपनी सुनाओ बहन! तुम्हारे यहाँ सब कुशल तो है?”
माया के अधरों पर बसी निश्छल मुस्कान तनिक धूमिल हो गयी। कहा, ” प्रदूषण का ज्वाला अब मेरे शांतिवन को भी जलाने लगी है दीदी! सब पहले जैसा तो नहीं रहा। वेद मंत्रों से गूंजती घाटियों में घुसपैठियों की कर्कश चीखें भी गूंजने लगीं हैं अब तो… ईश्वर ही जाने कि आगे क्या होगा…”
देवी अवंतिका ने गम्भीर स्वर में कहा, “संघर्षों से मत घबड़ाना बहन! सभ्यता के भाग्य में कभी कभी युगों लम्बी अंधेरी रातें भी आती हैं। यहाँ तक कि सूर्योदय की कोई आशा ही नहीं दिखती। फिर भी, एक न एक दिन प्रकाश फैलता ही है। अब मुझे ही देखो, लगभग चार शताब्दी तक पाप की काली छाया में जीना पड़ा था मुझे। फिर एक दिन आया मेरा प्रिय पुत्र बाजीराव बल्लाळ! मेरा जीर्णोद्धार हुआ, महाकाल की पुनर्प्रतिष्ठा हुई, मेरा वैभव लौटा! दुख सुख तो आते ही रहते हैं।”
देवी अयोध्या ने फिर बातचीत की दिशा बदली। उन्होंने सुन्दर रेशमी साड़ी पहने खड़ी देवी से कहा, “आप बताएं बहन कांची! आप चुपचुप सी क्यों हैं? आपने पिछली बार हमारे लिए कांजीवरम साड़ियां लाने के लिए कहा था, लाईं नहीं?”
“मया सर्वम् भगिनी आनयितम! परन्तु यूयं परस्परं व्यस्ताः सन्ति!” कांची ने कहना शुरू किया कि शेष सब खिलखिला पड़ीं। सबसे बड़ी होने के कारण सभी बहनें कांची से परिहास करती थीं। माया ने कहा, “भला हुआ कि आपने तमिल में न कहा दीदी! पर अभी आप प्रयाग में खड़ी हैं, हिन्दी में बोलिये। और शीघ्र हमारी साड़ियां दिखाइए।”
कांची प्रसन्न भाव से अपनी गठरी खोल कर सबको उपहार बांटने लगीं। रात्रि का चतुर्थ प्रहर प्रारम्भ होने ही वाला था। देवी द्वारावती ने कहा, “शीघ्र स्नान कर के चलो बहनों! अब हमें काशी भी चलना है।”
माया ने हंसते हुए कहा, “हाँ चलना तो पड़ेगा ही। देवी काशी अपने महादेव को छोड़ कर कहीं हिलती जो नहीं हैं, तो उनसे मिलने उनके घर जाना ही पड़ेगा। उनकी छटा भी निराली हुई पड़ी है। चलो, कुछ उपहार उनसे भी वसूलने हैं हमें…”
सभी हँस पड़ीं। अबतक चुपचाप खड़ी देवी मथुरा ने कहा, “मेरे दुख के दिन कब फिरेंगे बहनों? मेरे लिए भी तनिक प्रार्थना करो…”
देवी अयोध्या में आगे बढ़ कर उन्हें गले लगा लिया और पीठ सहलाते हुए कहा, “काशी चलो बहन! वहीं से कोई मार्ग निकलेगा। अबकी महादेव से कहेंगी हम सब…”
(मान्यता है कि प्रत्येक कुम्भ में स्नान के लिए सप्तपुरियों में से छह पुरियाँ एक साथ आती हैं। बस काशी कहीं नहीं जाती!)