आशुतोष मिश्र
Mahakumbh 2025 : हर बार जब प्रयागराज कुंभ मेले की तैयारियाँ होती हैं, तो गंगा-यमुना के तटों पर एक भव्य नगरी आकार लेती है—टेंटों की भव्यता, रंगीन रोशनी, गूंजते मंत्र, संतों के प्रवचन, गूँजती ध्वनि और लाखों श्रद्धालुओं की आस्था से सजी यह नगरी किसी स्वप्नलोक से कम नहीं लगती। कुछ ही सप्ताह में एक निर्जन रेत का विस्तार, मानव श्रम और आस्था के संकल्प से एक जीवंत नगरी में बदल जाता है। लेकिन जैसे ही कुंभ समाप्त होता है, यह पूरी नगरी उजड़ जाती है। भव्य टेंट हटा दिए जाते हैं, रोशनी बुझ जाती है, मार्ग धुंधले पड़ जाते हैं, और वह स्थान फिर से वैसा ही सूना और शांत हो जाता है, जैसा पहले था।
यह दृश्य जीवन के सनातन सत्य को प्रतिबिंबित करता है। सृजन और विनाश, आगमन और प्रस्थान, मिलन और विरह। यह कुंभ नगरी हमें सिखाती है कि यह संसार भी एक अस्थायी मेला ही है, जहाँ हम कुछ समय के लिए आते हैं, अपना कर्तव्य निभाते हैं, और फिर समय की धारा में विलीन हो जाते हैं।
भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं…
“जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।”
(जो जन्मा है, उसकी मृत्यु निश्चित है,
और जो मरा है, उसका पुनर्जन्म भी निश्चित है।)
जिस प्रकार कुंभ की टेंट सिटी बसती है और फिर मिट जाती है, उसी प्रकार यह संसार भी #क्षणभंगुर है। महलों का निर्माण होता है, वे ध्वस्त होते हैं। जीवन में संबंध बनते हैं, फिर बिछड़ जाते हैं। परंतु इस परिवर्तनशीलता के बीच एक शाश्वत सत्य भी है, जैसे हर बार कुंभ फिर से बसता है, वैसे ही यह जीवन भी बार-बार जन्म और मृत्यु के चक्र में घूमता रहता है।
हम चाहे जितना इस संसार को अपना समझें, पर सत्य यही है कि यह माया का एक अस्थायी स्वरूप है। कुंभ का मेला हमें यह गहरा संदेश देता है कि हमें जीवन को एक यात्रा की तरह देखना चाहिए—सजाना चाहिए, संवारना चाहिए, जी भरकर अनुभव करना चाहिए, परंतु इस सत्य को स्वीकार करते हुए कि एक दिन यह सब छोड़कर आगे बढ़ जाना है।
सनातन का सबसे विराट आयोजन कुम्भ से भी हम सीख सकते हैं कि जीवन भी एक यात्रा है—आस्थाओं से भरा हुआ, पर क्षणिक। परंतु जो ज्ञान और सत्य हम अर्जित करते हैं, वही हमारी वास्तविक पूँजी है।