निशिकांत ठाकुर
नई दिल्ली : एक बार फिर लगने लगा है मानो मणिपुर भारत सरकार के नहीं, बल्कि किसी नेतृत्वविहीन सत्ता के अधीन है। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। कई बार ऐसा हो चुका है कि तथाकथित राज्य के उपद्रवी संगठनों द्वारा ऐसा एक साजिश के तहत किया जा रहा है। अब तो हालात यह हो चुके हैं कि राज्य के मुख्यमंत्री एन. वीरेन सिंह के पैतृक घर को भी जलाने का प्रयास किया गया, लेकिन चौकस सुरक्षाबलों ने उस प्रयास को नाकाम कर दिया। लेकिन, तब तक बहुत देर हो चुकी थी और फिर दूसरे दिन एक मंत्री सहित चार विधायकों के घर हथियारबंद उपद्रवियों द्वारा फूंक दिए गए गए। राज्य की समस्या इतनी विकट हो गई है कि महाराष्ट्र में चुनावी रैली को रद्द कर गृहमंत्री अमित शाह को दिल्ली लौटना पड़ा। गृहमंत्री ने गृह मंत्रालय व सुरक्षा एजेंसियों के अधिकारियों के साथ विचार—विमर्श कर मणिपुर के उबलते हालात की समीक्षा की और सूचना के मुताबिक हिंसा को रोकने के लिए जरूरी कदम उठाने के निर्देश दिए। उधर, मणिपुर में निष्फल मुख्यमंत्री एन. वीरेन सिंह की सरकार ने छह पुलिस थानों के अधिकार क्षेत्र में अफस्पा(आर्म्ड फोन– सेस स्पेशल पावर एक्ट) वापस लेने का अनुरोध किया है। दरअसल, राहत शिविर से लापता महिलाओं और बच्चों के शव मिलने के बाद पिछले सप्ताह हिंसा भड़क उठी थी। मैतेई संगठनों का आरोप है कि इनकी हत्या उग्रवादियों ने की है।
उधर, राज्य के हालात को देखते हुए नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया है। ज्ञात हो कि राज्य की कोनार्ड संगमा की सबसे बड़ी पार्टी है, जिसके सात विधायक हैं। उन्होंने यह कहते हुए सरकार से समर्थन वापस लिया है कि राज्य में सरकार का नियंत्रण नहीं रह गया है जिसके कारण हालात दिनोदिन बिगड़ रहे हैं। इधर, कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने सोशल मीडिया प्लेटफार्म एक्स पर लिखा कि ‘मणिपुर से आ रही खबरें दिल दहलाने वाली हैं। डेढ़ साल से एक राज्य धधक रहा है। लगातार हत्याएं और दुष्कर्म की घटनाएं हो रही हैं। घर जलाए जा रहे हैं। महिलाएं और बच्चे हिंसा का शिकार हो रहे हैं। विधायकों, मंत्रियों और खुद मुख्यमंत्री के घर पर हमले हो रहे हैं। भाजपा के ही कई विधायक उनके मुख्यमंत्री को हटाने की मांग कर रहे हैं। प्रधानमंत्री जी ‘वॉर रुकवाने’ और विश्व भर के लिए शांतिदूत बनने का प्रोपेगैंडा चलवाते हैं, लेकिन अपने ही देश के एक हिस्से में डेढ़ साल से शांति स्थापित करने में पूरी तरह नाकाम हैं। वे दुनिया घूम रहे हैं, दर्जनों रैलियां कर रहे हैं, लेकिन मणिपुर की तरफ देखने की फुर्सत नहीं है।’ सच तो यही है कि इस डेढ़ वर्ष में एक भी ऐसा अवसर नहीं आया, जब प्रधानमंत्री को मणिपुर की यात्रा करने की आवश्यकता पड़ी हो? प्रधानमंत्री किसी दल विशेष के हो सकते हैं, लेकिन वे देश के संरक्षक होते हैं। उनके एक बार मणिपुर जाकर और पीड़ितों को ढाढस बंधा देने से किसी का कोई नुकसान नहीं होगा, लेकिन पीड़ितों को यह भरोसा जरूर होगा कि देश का शीर्ष नेतृत्व और संरक्षक हमारे पीछे खड़ा है।
मणिपुर की विकट स्थिति को देखते हुए गृहमंत्री ने हस्तक्षेप किया और वहां शांति बहाल करने के लिए अर्द्धसैनिक बालों की पचास अतिरिक्त कंपनियों को भेजने का निर्णय किया है। ऐसी स्थिति में क्या मणिपुर में जोर—जबरदस्ती करके शांति—व्यवस्था कायम की जा सकती है? यह एक बड़ा प्रश्न है। यह ठीक है कि अर्द्धसैनिकों के बल पर आप कुछ समय के लिए शांति स्थापित कर सकते है, लेकिन क्या यह टिकाऊ होगा? इसलिए जोर—जबरदस्ती किसी आंदोलन को दबाने के बजाय वहां शांति बहाल करने के लिए मिल बैठकर किसी ठोस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है और यही विश्व में होता भी रहा है, लेकिन आज हमारे देश में ही वैसा नहीं हो रहा है और पीड़ितों के इंसाफ करने के बजाय उसे दबाने का प्रयास किया जा रहा है। यदि विपक्ष का यह कहना बिल्कुल उचित है कि प्रधानमंत्री को मणिपुर जाकर वहां के पीड़ितों से मिलकर उनके वास्तविक हालात को समझना चाहिए, लेकिन यह क्या! प्रधानमंत्री तो विदेशों में अपने नाम का डंका बजवाने में ही शान समझने लगे हुए हैं।
एक प्रश्न और, मणिपुर की जनता को और देशभर को यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि राज्य में केवल एन. वीरेन सिंह ही ऐसे हैं, जो मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाकर सरकार चला सकते हैं? यह देश का दुर्भाग्य है कि आज डेढ़ वर्ष से मणिपुर के हालात बाद से बदतर होते गए, लेकिन मुख्यमंत्री वही बने रहे। उनकी कुर्सी कभी हिली नहीं। जो मुख्यमंत्री अपने परिवार की रक्षा करने में सक्षम नहीं है, उसे डबल इंजन की सरकार अबतक सत्ता की शीर्ष कुर्सी पर बैठने का कोई हक नहीं रह जाता, लेकिन गवाह है कि ऐसे कमरहीन नेतृत्व को ही भाजपा पनाह देती रही है, उससे छेड़छाड़ नहीं करती। यही तो मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. वीरेन सिंह के साथ हो रहा है। राज्य में घट रही इतनी घटनाओं और लगभग 250 लोगों की हत्या के बावजूद इस निकम्मे मुख्यमंत्री का कोई बालबांका नहीं कर सका है। प्रश्न यह है कि क्या देश अब इसी तरह के निकम्मे व्यक्तियों द्वारा चलाया जाएगा?
अब यह समझने का का प्रयास करते हैं कि आखिर मणिपुर में ऐसा क्या हो गया? दरअसल, मणिपुर में घाटी बहुल समुदाय मैतेई और पहाड़ी बहुल समुदाय कुकी जनजाति के बीच हिंसा की शुरुआत 3 मई, 2023 को इसलिए हुई थी कि मैतेई समाज की मांग थी कि उसको कुकी समुदाय की तरह राज्य में शेड्यूल्ड ट्राइब का दर्जा दिया जाए। मैतेई समुदाय की मांग के विरोध में पर्वतीय आदिवासी एकजुटता का आयोजन कुकी जनजाति समुदाय द्वारा किया गया, जिस दौरान हिंसा भड़क उठी। फिर प्रतिक्रिया स्वरूप 4 मई के अलसुबह लगभग हजार हथियारबादों की भीड़ ने कांग्योपकी जिले के एक गांव में हमला किया। मकानों में लूटपाट की गई। उनमें आग लगाई गई, हत्याएं की गई और दो महिलाओं को निर्वस्त्र कर सरेआम घुमाया गया। इस वीभत्स और देश को शर्मसार करने वाली घटना के लगभग डेढ़ महीने बाद 21 जून को प्राथमिकी दर्ज की गई। देश का मस्तक विश्व के समक्ष शर्म से झुकता रहा और मणिपुर का सरकारी अमला डबल इंजन की सरकार चैन की नींद सोता रहा। मणिपुर की घटना उसी कहानी को चरितार्थ करता है कि रोम जलता रहा और वहां का राजा चैन की नींद सोता रहा। आज भी मणिपुर जल रहा है, लेकिन प्रशासनिक अमला वही है, वही मुख्यमंत्री है और देश में हाहाकार मचा हुआ है। चूंकि विपक्ष अधिकारविहीन है, इसलिए कोई यदि आरोप लगाता है कि दंगा, उपद्रव उन्होंने भड़काया है, तो उसे शांत करने का फिर भी दायित्व सत्तारूढ़ का ही होता है, लेकिन इसे पुरजोर तरीके से कौन कहेगा या सत्तारूढ़ पीड़ितों का मुंह जोर—जबरदस्ती बंद कराकर हालात को नियंत्रित कर लेगा? देखिए, आगे क्या होता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)