Neutral Colour: रखना द्रष्टा भाव का

Prashant Karn

Neutral Colour : वेदों की रचनाओं के पश्च्यात श्रुति परम्पराओं में हजारों वर्षों तक वेदों की ऋचाएं श्रुति भाव से चलीं और फिर लिपिबद्ध हुईं . वेदों के सृजन काल से ही इसे दृष्टा भाव से ग्रहण करने की गौरवशाली परम्परा रही .ऋषियों ने वेदों की लिपि परम्परा को प्रारम्भ करते हुए भी द्रष्टा भाव को सजीव रखा .भाग्यवादी कहते हैं कि जो भाग्य में लिखा है , वह होकर रहेगा . दृष्टा भाव से जीवन की यात्रा करो . पुरुषार्थवादी कहते हैं कि उद्यम करना हमारे भाग में है और सही दिशा में, सही मात्रा में उद्यम करने से सही परिणाम मिलते ही हैं, बस भाव द्रष्टा का रखो . अहंकार का बीज अंकुरित ही नहीं होगा. द्रष्टा भाव को दोनों ही प्रश्रय देते हैं. द्रष्टा भाव सुख देता है. द्रष्टा भाव से ही कुछ दूसरों के अश्रु से दुःखी होते हैं और कई प्रसन्न . भाव द्रष्टा का ही है दोनों में – देव और असुर चिंतन ! द्रष्टा भाव से ही हम पात्र को आधा भरा अथवा आधा रिक्त कहते हैं . एक छोर पर सकारात्मकता है तो वहीं दूसरी छोर पर निराशात्मकता . बीचों बीच तटस्थ स्थिति है . बुद्ध ने साँसों की जीवन यात्रा पर अपने चरम बौद्धिक उत्कर्ष से वैज्ञानिक सिद्धांत दिए, उनमें से दूसरा यह था की वर्तुल की गति की भाँती एक छोर पर जीवन है और दूसरी छोर पर मृत्यु. मध्य बिंदु, न्यूट्रल पॉइंट, मोक्ष्य है. जहाँ न जन्म है और न ही मृत्यु . तटस्थ भाव ! सब कुछ अपनी आँखों से होते हुए देखते हुए चुप्पी साध मौन , प्रतिक्रिया शून्य, तटस्थ भाव !
रवि बाबू ने इतनी व्याख्या के बाद अपने बनारसी शैली में कहा – गुरु बुझे कछु ! समझत हउए भैया ! तटस्थ होना और उस भाव पर टिके रहना कितना कठिन है . बिरले ही, विद्वान् ही ऐसा साध पाते हैं. जीते जी मोक्ष्य प्राप्ति का सुख ले पाते हैं. जाड़े के दिनों में बरसाती पहनकर स्नान करना भी द्रष्टा भाव नहीं तो और क्या ? तटस्थ – स्नान किया भी और नहीं भी . स्नान कर लेने वालों की पंक्ति में स्थान पा गए और फिर जल से दूरी बनाकर दिखाते हुए बिना भींगे अलग खड़े हो गए. विद्वता इसमें नहीं है कि संत बनकर माला जपें, असली विद्वता तो इसमें है कि देवताओं में भी गिने जाएँ और असुरों के प्राणप्रिय रहें. अपनी काशी तो गया जी की भाँती मोक्ष्य की नगरी है, शिव के त्रिशूल पर बसा. न स्वर्ग , न ही नर्क . नर्क समान बस धरती पर रहते हुए स्वर्ग के सुख का आनंद ! इधर भी गिनती में सम्मिलित और उधर भी. भैया जानत हउए, बनारस शब्द से ही स्पष्ट है कि यहाँ रस बनाना नहीं पड़ता. बना – बनाया रस जहाँ मिले, वही बनारस है. वाराणसी तो वरुणा और असि नदियों से मिले भूभाग के कारण लोग कहने लगे . अन्यथा यह तो काशी ही है. देव और दानव दोनों प्रकृति, प्रवृति के लोग बनारस में मिलेंगे. पर असली आनंद तो तटस्थों के भाग्य में लिखा होता है. वही द्रष्टा भाव !
मैंने अब रवि बाबू को टोक दिया. बोला – पार्टनर, प्रातःकाल में ही भंग छान लियो या चिलम सोंट लियो का भैया ? अचानक से इत्ते बड़े ज्ञानी बनकर बड़े ज्ञान छाँट रहे हो. रवि बाबू एकदम से गंभीर हो गए. मुखमंडल पर तनाव छलक गया. आक्रोश से अधर फड़फड़ाने लगे. मुट्ठियाँ भींचने लगीं. मैंने विनम्रता कहा – जानता हूँ आप नशे से दूर रहे हैं . परिहास कर रहा था. रवि बाबू ने गंभीरता से कहा – गंभीर बातों में अपने परिहास का उचक्केपन मत दिखाओ. मन मेरा व्यथित है. व्यथित कदापि इसलिए नहीं है कि तुमने मुझे देवाधिदेव महादेव के चेलों के प्रसाद भांग -गांजे से जोड़ा. व्यथित इसलिए नहीं हूँ कि काँग्रेसी विचारधारा नहीं रही. व्यथित तो हूँ वस्तुतः इसलिए कि हमने एक महान अर्थशास्त्री, विराट विद्वान् ही नहीं राष्ट्र के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह को आज खो दिया. हम दोनों ने उनको श्रद्धांजलि दी. रवि बाबू तटस्थ चाल से दक्षिण दिशा में चले गए और मैं पूर्व की ओर लौट गया.

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