Operation Sindoor : एक समय था जब भारत को केवल एक विकासशील और शांत राष्ट्र के रूप में देखा जाता था, लेकिन आज वह वैश्विक मंच पर दृढ़ता से अपनी भूमिका निभा रहा है. पहलगाम हमले के जवाब में ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के रूप में आतंक पर की गई स्ट्राइक की गूंज दुनिया में सुनाई दी. लगभग एक दशक पहले शायद ही किसी ने अनुमान लगाया होगा कि नेतृत्व परिवर्तन का भारत की वैश्विक पहचान पर इतना बड़ा प्रभाव पड़ेगा. आज, हम गर्व से कह सकते हैं कि विश्व भारत की ताकत को जान चुका है, पहचान चुका है और पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवाद की सच्चाई भी अब छिपी नहीं रही. इस बदलाव के केंद्र में हैं- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद अनवरत विदेश दौरे किए, आज जिन दौरों का असर हम सबके सामने है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश यात्राएं केवल प्रतीकात्मक नहीं रहीं, वे दीर्घकालिक वैश्विक निहितार्थों के साथ सुनियोजित कदम थे. यही वजह है कि पिछले एक दशक में, अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति–राष्ट्रीय शक्ति के साधन में बदल गई.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को पीएम आवास (7, लोक कल्याण मार्ग) पर सात सर्वदलीय डेलिगेशन के सदस्यों से मुलाकात की. इस दौरान सभी सदस्यों ने विभिन्न देशों में अपनी बैठकों के बारे में पीएम मोदी को बताया. डेलिगेशन में अलग-अलग दलों के सांसद, पूर्व सांसद और राजनयिक शामिल थे, जिन्होंने पूरी दुनिया में पाकिस्तान को बेनकाब किया. आतंकवाद के खिलाफ भारत के रुख को दुनिया के सामने साझा किया. ऑपरेशन सिंदूर के बाद सर्वदलीय डेलिगेशन ने 33 देशों का दौरा किया था.
डिप्लोमेसी में सारी बातें इतनी खुली नहीं होतीं, जितनी बाहर से समझी जाती हैं. बहुत सी बातें बैकरूम होती हैं. चीन का नाम लेने और ट्रंप को मुँहतोड़ जवाब देने में भारत की हिचक क्या है, इसे क्या हम राजनीतिक बयानों से समझेंगे?
कम से कम शशि थरूर और सलमान खुर्शीद जैसे वरिष्ठ नेता इस बात को बेहतर समझते हैं. जिस वक्त यूपीए के शासन में पूर्वी लद्दाख पर चीनी घुसपैठ का मामला हुआ था, सलमान खुर्शीद ही विदेशमंत्री थे. उसके बाद वे चीन गए थे.
पाकिस्तान की पीठ पर चीन का हाथ है, इसे कौन नहीं जानता. सच यह भी है कि भारत और चीन के बीच करीब 100 अरब डॉलर का कारोबार होता है. जहाँ तक आलोचना की बात है, जर्मन अख़बार फ्रैंकफर्टर अलगेमाइन ज़ाइटुँग से विदेशमंत्री एस जयशंकर ने कहा, पाकिस्तान के पास शस्त्र-प्रणालियाँ चीन की हैं और दोनों देश बहुत करीब हैं. आप इससे अपने निष्कर्ष निकाल सकते हैं.
राजनीतिक पेच
विदेश-नीति और आंतरिक राजनीति के अंतर्संबंधों को लेकर जो सवाल इस दौरान उठे हैं, वे गंभीर विमर्श की माँग करते हैं. ये सवाल खासतौर से ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद भारत के सर्वदलीय शिष्टमंडलों की विदेश-यात्रा, मोदी की कनाडा-यात्रा और भारत-अमेरिका रिश्तों को लेकर उठे हैं.
जैसे ही लगा कि प्रधानमंत्री मोदी की कनाडा-यात्रा नहीं होने वाली है, कांग्रेस सांसद जयराम रमेश ने 3 जून को सरकार पर निशाना साध दिया. उन्होंने कहा कि यह एक और बड़ी डिप्लोमैटिक-चूक है. एक्स पर एक पोस्ट में रमेश ने कहा कि छह साल में पहली बार भारत शिखर सम्मेलन में शामिल नहीं होगा.
इसके पहले ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद जब भारत सरकार ने बहुदलीय शिष्टमंडलों को दुनिया के देशों में भेजने का फैसला किया, तब उसमें शामिल सदस्यों के नाम को लेकर राजनीतिक-टिप्पणियाँ हुईं. खासतौर से कांग्रेस पार्टी के शशि थरूर, सलमान खुर्शीद और मनीष तिवारी के नामों को लेकर विवाद खड़ा हुआ.
इनकी सिफारिश पार्टी ने नहीं की थी, पर इनके अनुभव को देखते हुए इनका चयन गलत भी नहीं था. इनके चयन का मसला हवा में था कि विदेश में इनके कुछ बयानों को लेकर फिर राजनीतिक विवाद खड़ा हुआ. शशि थरूर और सलमान खुर्शीद ने अनुच्छेद 370 और कुछ दूसरे पर जो बयान दिए, जो आंतरिक राजनीति से जुड़े थे. इन बयानों को पार्टी-लाइन से हटकर माना गया.
राजनयिक जटिलताएँ
इन बयानों को लेकर जब तीखी प्रतिक्रियाएँ हुईं, तब पत्रकारों ने शशि थरूर की प्रतिक्रिया ली. थरूर ने कहा, ‘जो लोग राष्ट्रीय हित में काम करने को पार्टी-विरोधी गतिविधि समझते हैं, उन्हें खुद से सवाल करना चाहिए.’
हालांकि कांग्रेस ने पहलगाम हमले के बाद कहा था कि सरकार जो भी कदम उठाएगी, उसका हम समर्थन करेंगे, पर सुरक्षा और इंटेलिजेंस रिपोर्टों को लेकर फौरन सवाल उठाए. बीजेपी पर सेना की उपलब्धि का राजनीतिक लाभ उठाने का आरोप भी लगाया.
ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद भी पार्टी के सवाल जारी रहे. वहीं थरूर ने कहा कि राष्ट्रीय हित और भारत की वैश्विक छवि को मज़बूत करना किसी भी राजनेता का प्राथमिक कर्तव्य है. उन्होंने कहा, ‘भारत का आतंकवाद के ख़िलाफ़ कड़ा रुख पूरी तरह उचित है.’ इस बयान से भारत की विदेश-नीति का समर्थन होता है, जो कांग्रेस की आधिकारिक लाइन नहीं है.
थरूर ने एक और जगह कहा,’…यह समय दलीय राजनीति से ऊपर उठने का है.’ दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी मोदी सरकार पर तीखे-प्रहार कर रही है. उसकी आलोचनाओं का पाकिस्तानी चैनलों पर प्रसारण होता है.
राजनीतिक-निष्ठा
सलमान खुर्शीद ने कहा, ‘जब हम आतंकवाद के खिलाफ भारत का संदेश दुनिया तक ले जा रहे हैं, तो यह दुखद है कि घर में लोग राजनीतिक निष्ठाओं का हिसाब लगा रहे हैं. क्या देशभक्त होना इतना मुश्किल है?’ मनीष तिवारी ने भी राष्ट्रीय हितों और आतंकवाद-विरोधी नीतियों को लेकर पार्टी लाइन से हटकर कई बयान दिए.
इस दौरान कांग्रेस प्रवक्ताओं ने कहा कि प्रतिनिधिमंडलों ने चीन का नाम तक नहीं लिया. चीन, पाकिस्तान की मदद कर रहा है. उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की भी आलोचना नहीं की, जो बार-बार दावा कर रहे हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धविराम मैंने कराया.
बैकरूम बातें
डिप्लोमेसी में सारी बातें इतनी खुली नहीं होतीं, जितनी बाहर से समझी जाती हैं. बहुत सी बातें बैकरूम होती हैं. चीन का नाम लेने और ट्रंप को मुँहतोड़ जवाब देने में भारत की हिचक क्या है, इसे क्या हम राजनीतिक बयानों से समझेंगे?
कम से कम शशि थरूर और सलमान खुर्शीद जैसे वरिष्ठ नेता इस बात को बेहतर समझते हैं. जिस वक्त यूपीए के शासन में पूर्वी लद्दाख पर चीनी घुसपैठ का मामला हुआ था, सलमान खुर्शीद ही विदेशमंत्री थे. उसके बाद वे चीन गए थे.
पाकिस्तान की पीठ पर चीन का हाथ है, इसे कौन नहीं जानता. सच यह भी है कि भारत और चीन के बीच करीब 100 अरब डॉलर का कारोबार होता है. जहाँ तक आलोचना की बात है, जर्मन अख़बार फ्रैंकफर्टर अलगेमाइन ज़ाइटुँग से विदेशमंत्री एस जयशंकर ने कहा, पाकिस्तान के पास शस्त्र-प्रणालियाँ चीन की हैं और दोनों देश बहुत करीब हैं. आप इससे अपने निष्कर्ष निकाल सकते हैं.
राष्ट्रीय हित
यही बात तुर्की पर लागू होती है. पाकिस्तान के साथ टकराव के बाद देश में तुर्की के बहिष्कार की बातें होने लगीं, पर गहराई से देखें, तो ऐसा करना राष्ट्रीय हित में नहीं होगा. तुर्की के साथ भारत का भारत 2.73 अरब डॉलर का व्यापार सरप्लस है.
हमें अपने निर्यातकों के हितों को भी ध्यान में रखना होगा. कारोबारी प्रतिबंधों से कठोर संदेश ज़रूर जाएगा, पर देखना यह भी होगा कि हम उसे कितनी दूर तक ले जाएँगे.
जहाँ तक ट्रंप के बार-बार बयान की बात है, भारत ने भी संजीदगी के साथ एक से ज्यादा बार कहा है कि लड़ाई ट्रंप के कहने पर नहीं, पाकिस्तान के घुटने टेकने पर रुकी है.
विदेश-यात्राएँ
बयानों के आगे-पीछे की बातों को भी पढ़ना चाहिए. सबसे ज़रूरी बात है राष्ट्रीय-हित. ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के राजनयिक संदेश को ले जाने के लिए भारतीय शिष्टमंडलों ने यात्राएँ पूरी कर ली हैं.
यह संदेश सिर्फ़ विदेशी सरकारों के अलावा उनके सांसदों, मीडिया और जनता के लिए भी था, खासकर उन देशों के लिए जहाँ हमें अपेक्षित समर्थन नहीं मिला.
पाकिस्तान इस समय सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य है, जिसका लाभ उसने उठाया. पहलगाम हत्याकांड के फौरन बाद सुरक्षा-परिषद के बयान में संशोधन कराने में पाकिस्तान सफल हो गया. हमले की ज़िम्मेदारी लेने वाले टीआरएफ का नाम बयान में शामिल नहीं हो पाया.
दूरगामी निगाहें
इन दौरों का लाभ किस हद तक मिला, यह विश्लेषण का विषय है, पर इसके मंतव्य पर प्रहार करना गलत है. भारत सरकार ने अपने दूतों को समझदारी से चुना, ताकि देश की सकारात्मक और बहुलवादी छवि पेश की जा सके जो आतंकवाद के खिलाफ़ है. इसे राजनीतिक-विवाद का विषय नहीं बनाना चाहिए.
विदेश-नीति को घरेलू राजनीति प्रभावित करती है, लेकिन विदेश-नीति का घरेलू राजनीति में इस्तेमाल राष्ट्रहित में नहीं होता. डिप्लोमेसी बहिर्मुखी होती है. उसका दर्शक वर्ग अंतरराष्ट्रीय समुदाय है, जिसमें मित्र और विरोधी दोनों शामिल हैं. वहाँ हमें अपने सामूहिक-हितों की रक्षा करनी होती है.
इसे खेल की भाषा में समझें. राष्ट्रीय-प्रतियोगिताओं में हम अलग-अलग टीमों में रहते हुए एक-दूसरे के विरुद्ध खेलते हैं, पर जब राष्ट्रीय टीम बनती है, तब हम मिलकर देश की टीम के लिए खेलते हैं.
राजनीतिक दलों के हित भी होते हैं. उनकी गतिविधियों से उनकी साख बनती या बिगड़ती है. विदेश-नीति में भी उनके नीति-विषयक दृष्टिकोण अलग हो सकते हैं, पर वृहत अर्थ में राष्ट्रीय-हितों पर मोटी सहमति तो होती ही है. मसलन पहलगाम की हिंसा का समर्थन कौन करेगा?
समय के साथ बहुत सी परिभाषाएँ बदल भी रही हैं, जिनमें विदेश-नीति और घरेलू-राजनीति का द्वंद्व भी शामिल है. फिलहाल यह द्वंद्व बढ़ रहा है.