political system : घोड़ा को देख मेढ़क भी चला कील ठुकवाने

Bindash Bol

उमानाथ लाल दास

political system : जितना ही सूक्ष्म अवलोकन, जीवन की संवेदना के सूत्र उतने ही हाथ आते हैं। सृजन में प्रवेश के द्वार कहिए या रचना का उपजिव्य। गहन चिंतन उनके सर्जकों की प्रवृत्ति होती थी किसी दौर में। मैं कह रहा हूं किसी दौर में। राजनीति की हवा उस आंगन में तभी प्रवेश करती थी, जब उसकी विषय वस्तु हो, समय की मांग हो या कथानक छूता हो। इस मायने में यशपाल के झूठा सच और सृंजय के कामरेड का कोट के अंतर को समझा जा सकता है। पहली किताब आजादी के आर-पार जाकर उसके छल-छद्मों, राग-विराग की सोनोग्राफी की तरह है तो दूसरी कहानी सोवियत विखंडन से उपजे भारतीय वामपंथ के अवसाद का एक्स-रे करने की राजनीतिक कोशिश है। एक राजनीतिक रहकर भी निस्संगता में चीजों को रखता है तो दूसरा अराजनीतिक होकर भी राजनीति के जार्गन से बच नहीं पाता। ‌आज तो आप राजनीतिक हुए बिना लेखक नहीं हो सकते। और राजनीति भी लिबरल पंथी नहीं हुए तो आप न विचारक-चिंतक, अध्येता, कवि-लेखक, संस्कृतिकर्मी-बौद्धिक नहीं हो सकते तो नहीं हो सकते। आज कबीर के अप्रतिम अध्येता पुरुषोत्तम अग्रवाल से लेकर प्रो अपूर्वानंद, इतिहासकार नहीं इतिहास लेखक चमनलाल से लेकर तुलसी पर शोध करने वाले लक्ष्मण यादव इसके उदाहरण हैं। आज विष्णु नागर, मदन कश्यप अपने लेखक होने का प्रमाण देने के लिए लिबरल होने को अभिशप्त हैं।

यह लंबी-चौड़ी भूमिका हो गयी उत्तर सिंदूर परिदृश्य में बदरंग होती वैचारिकी और साहित्यिक चेतना। और ऐसे लोग भारत-पाक द्वंद्व के वैश्विक परिपार्श्व में एक सजग भारतीय का धर्म को नहीं समझने की जिद पाल बैठे हैं। सबके सब नेहा सिंह राठौड़ के अधकचरे कीर्तन में झलकुट्टन करने लगे हैं। जब घर में आग लगी हो तो आप साज-सज्जा देखेंगे या घर वालों को जी-जान लगा के बचाएंगे। बस यही तो कर रहे थे असदुद्दीन ओवैसी, सलमान खुर्शीद, शशि थरूर, संजय झा, सरफराज अहमद। इसमें बुरा क्या था वक्त के तकाजे के अनुसार घरेलू मतांतर को भूलकर एक राष्ट्रीय दायित्व के लिए जिम्मेदार नागरिक का फर्ज निभा रहे थे। पर यह कांग्रेस को चुभ गई कि उसकी सूची न लेकर सत्ता पक्ष ने अपने हिसाब से पिक चूज कर लिया। आप दूसरे समय नाराजगी के दूसरे फ्रंट पर लीड कर सकते थे कि भाई जब विदेश में हम देश का चेहरा चमका रहे हैं तो तो आप घर में सिर्फ अपना तिरंगा अभियान क्यूं चला रहे हैं। यही अपरिपक्वता थी जो राहुल के हाथ से सिंदूर मोर्चा पर घेराबंदी करते करते अचानक महाराष्ट्र के चुनाव की कथित धांधली का पुराना राग लेकर बैठ जाते हैं। इस फ्लो में जब वह कहते हैं कि अगली चुनाव फिक्सिंग बिहार में होने जा रही तो खिसकते जनाधार से उनकी खिसियाहट भर लगती है यह। यहीं सारे लिबरल उनके पिछलग्गू हो जाते हैं या कोरस गाने लगते हैं। वह यह नहीं देखते कि जिन अखबारों ने लाउडली राहुल गांधी का लेख छापा, वही हिंदी-अंग्रेजी अखबार उससे भी लाउडली राहुल गांधी के लेख का पोस्टमार्टम छापते हैं। इससेरवीश कुमार को उसी तरह कोई फर्क नहीं पड़ता जैसे कन्हैया या अदना कांग्रेसी को इससे कोई लेना-देना। वह जैसे न्यायपालिका को कभी सच कभी झूठ कहते हैं, उसी तरह अपना लगता मीडिया घराना भी वैरी और बिका हुआ लगता है।

कांग्रेस प्रवक्ता रहते हुए 2014 में मोदी की प्रशंसा करने की कीमत पद खोकर चुकाई थी शशि थरूर ने। और इसके चार साल बाद 2018 में आती है उनकी किताब why I am Hindu लिखी। लिबरल दस्ता भूल रहा है कि उनकी यह किताब हिंदू राष्ट्रवाद के प्रतिकार के रूप में लिखी गयी थी। यह सलमान खुर्शीद की तरह सहिष्णुता और पुरस्कार लौटाने वालों के सुर में सुर मिलाकर लिखी किताब sunrise over Ayodhya : Nationhood in our time (2021) की तरह एकालापी नहीं। हां यह स्वीकारने में भी परेशानी नहीं होनी चाहिए कि प्रभाष जोशी की पुस्तक हिंदू होने का धर्म (2002) जैसी समृद्ध भी नहीं। (आवांतर होकर कहना जरूरी लगता है कि इन सबके जिक्र के साथ जहन में कौंधती बर्ट्रेंड रसल why I am not christian या भगत सिंह के मैं नास्तिक क्यों हूं किताबों से अलग कैटेगरी की हैं तीनों किताबें।) जो अभी थरूर के रूख से हैरान-परेशान हैं, उन्हें यह भी समझ होना चाहिए कि वह दिग्विजय सिंह या कमलनाथ की तरह राजनीति में नहीं आये। शानदार अकादमिक पृष्ठभूमि, उत्कृष्ट करियर रहा है उनका। यूएन महासचिव का चुनाव हारने के बाद उनके पास वाम, कांग्रेस और भाजपा सभी के आफर थे। कांग्रेस को चुना उन्होंने क्योंकि वह अपनी प्रकृति के करीब लगी। ज़हरीले सेकुलरिज्म को आप तुष्टीकरण के जामे से अधिक देर तक ढंक कर नहीं रख सकते। वही हुआ। उनका मोहभंग होता गया। राष्ट्रवाद के प्रतिकार में लिखी उनकी पुस्तक मैं हिन्दू क्यूं हूं का मर्म समझ सके उस धड़े के लोग। वह बहुत शातिर और हिसाब किताब वाले राजनेता नहीं हैं। नहीं तो केंचुल पहनकर आज भी कई भाजपाई हैं कांग्रेस में। हारकर राहुल गांधी तक को यह कहना पड़ा। तो यह कहा जा सकता है कि सुब्रह्मण्यम स्वामी और शशि थरूर वह हाथी हैं जिन्हें खरीदा तो जा सकता है, पर रखना बहुत मुश्किल है ,,, सलमान खुर्शीद भी कुछ-कुछ इसी तरफ चल पड़े लगते हैं। कांग्रेस इसी तरह बड़े या प्रभावी नेताओं को खोने की कगार पर है।

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