Sansad me hungama : जनता की कमाई पर ‘माननीयों’ की मौजमस्ती

Nishikant Thakur

Sansad me hungama : पिछले सप्ताह भारतीय संसद के दोनों सदन बाधित ही रहे और  जनहित संबंधी कोई भी बिल पास नहीं हो सका। लेकिन, एक बात जो खटकती है कि भारतीय संविधान ने पक्ष-विपक्ष, दोनों को सामान्य अधिकार दिया है कि वह विपक्ष अपने मनमुताबिक जनहित के बिल पास कराने के लिए सत्तारूढ़ से बहस करे और यहां तक कि जब उनकी इच्छा के अनुकूल काम न हो, तो वह सदन की कार्यवाही का बहिष्कार कर दे। यही बात सत्तारूढ़ दल के साथ भी होता था। जब विपक्ष आक्रामक हो जाता था, तो अध्यक्ष और सभापति दोनों सदनों की कार्यवाही कुछ मिनटों, कुछ घंटों अधिक-से-अधिक उस दिन के लिए रोक देते थे। यह स्थिति तभी होती थी, जब सदन में हंगामे के कारण पानी नाक के ऊपर से बहने लगता था। फिर दूसरे-तीसरे दिनों थोड़ा बहुत संशोधन के बाद बिलों का निपटारा हो जाता था और कार्यवाही सुचारु रूप से होने लगती थी। ऐसा इसलिए, क्योंकि सांसद चाहे विपक्ष का हो या सत्तारूढ़ का, वे यह जानते थे कि प्रति मिनट संसद के चलने में जो खर्च होता है, वह आम जनता के खून-पसीने की कमाई है, जिसे नाहक बर्बाद नहीं किया जा सकता, लेकिन अब तो सदन में नोट लहराए जाते हैं, नोटों की गड्डियां सीटों की नीचे पाई जाने लगी हैं; क्योंकि सांसदों के पास अकूत धन होने के कारण उनकी नजरों में पैसा कोई मायने नहीं रखता। पर, जिस देश को गढ़ने में हमारे हजारों क्रांतिकारियों ने, उद्भट विद्वानों ने, देश में समृद्धि लाने के सपने देखते हुए अपने को न्योछावर कर दिया, वे अब आज की स्थिति को देखकर किस प्रकार बिलख रहे होंगे? आज के तथाकथित बेशर्म लोगों को इससे क्या लेना-देना?

आज तो हाल यह है कि एक व्यक्ति विशेष को बचाने के लिए सरकार कुछ भी करने को तैयार है। यही तो इस बार 25 नवंबर को शुरू हुए संसद में हुआ। पहले उद्योगपति गौतम अडानी पर अमेरिका द्वारा जारी गिरफ्तारी वारंट को लेकर विपक्ष और सत्तारूढ़ दल के बीच सदन में हंगामा हुआ। फिर दूसरा मामला उत्तर प्रदेश के सम्भल में मस्जिदों पर विवाद था, जिसमें गोलियां चलीं, फिर कथित तौर पर कई निर्दोषों की मौत हो गई। इन दोनों मामले पर सत्तारूढ़ ने सदन में चर्चा करने से साफ इनकार कर दिया। विपक्ष का कहना है कि आखिर इस पर चर्चा कहां होगी? बात आगे बढ़े, इससे पहले सदन की कार्यवाही स्थगित कर दी जाती है। अब समाज के मन में चाहे वह किसी भी दल का समर्थक हो, वह सरकार से यह जानने की अपेक्षा अवश्य करता है कि आखिर सच क्या है! वहीं, सम्भल और मणिपुर का मामला शांत क्यों नहीं हो रहा है? जब तक सरकार द्वारा सच को उजागर नहीं किया जाएगा, देश को सच का पता कैसे चलेगा? खैर, पिछले सप्ताह का समय तो हंगामे में बीत गया, लेकिन क्या अब आगे भी सदन चल पाएगा? जिस सदन को चलाने में एक मिनट का खर्च भारत में ढाई लाख रुपये होता है, उसके एक दिन का खर्च कितना होगा और अगर एक सप्ताह संसद को नहीं चलने दिया जाएगा, तो उस खर्च की गणना हम स्वयं कर सकते हैं। ज्ञात हो यह खर्च सरकारी खजाने से होता है और वह खजाना किसी के निजी घर से नहीं आता, बल्कि हमारे आपके द्वारा सरकार को दिया गया टैक्स होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो आप कह सकते हैं आपके खून-पसीने की कमाई का इन नेताओं द्वारा खुला दुरुपयोग किया जाता है।
यह वही नेतागण, वही सांसद होते हैं, जिनका सम्मान हमने संविधान द्वारा प्रदत्त मताधिकार का प्रयोग करके किया। क्या हमने इन्हें इसलिए संसद भेजा था कि हमारे धन का दुरुपयोग वह अपनी मौज-मस्ती के लिए करें और हमारी बेरोजगारी और गरीबी का इस प्रकार उपहास करें! उन्हें हमने अपना प्रतिनिधि अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए देश के सर्वोच्च सदन में भेजा है, ताकि हमारे दुख-सुख को सदन में रखकर उसपर गहन मंथन करें और हमारी समस्याओं का निदान ढूंढें।

अब सत्तारूढ़ सांसद द्वारा इस मामले को उठाया जा रहा है कि विश्व के सबसे बड़े पूंजीपति जॉर्ज सोरोस ने भारत सरकार को कमजोर करने, उसे गिराने के लिए षड्यंत्र रचा है। उनका दावा है कि सदन में विपक्ष के नेता राहुल गांधी की भारत यात्रा में जॉर्ज सोरोस का ही हाथ था और अडानी समूह का जो भी मामला संसद में उठाने का प्रयास किया जा रहा है, उसके पीछे भी उसी षड्यंत्रकारी का हाथ है। विपक्ष पूरी तरह उसके हाथों बिक चुका है। जनता तो यही समझती है कि जॉर्ज सोरोस का जो नया मुद्दा उठाया जा रहा है, वह अडानी, सम्भल और मणिपुर मामले से जनता का ध्यान भटकाने के लिए उठाया जा रहा है। सत्तारूढ़ दल द्वारा आरोप लगाकर ज्वलंत मुद्दों को मिट्टी के नीचे दबाने का एक ओछा प्रयास है। इसलिए विपक्ष लगातार सदन में अडानी, सम्भल और मणिपुर का मामला उठाता रहेगा।

1930 के यहूदी परिवार में जन्मे जॉर्ज सोरोस अमरीकी अरबपति हैं, जिनका नाम विश्व के सबसे बड़े दानकर्ता के रूप में लिया जाता है। इनका इतिहास यह भी है कि जॉर्ज सोरोस ने एक दिन में बैंक ऑफ इंग्लैंड को तोड़ दिया। उन्होंने वर्ष 1992 के 16 दिसंबर को एक दिन में एक बिलियन डॉलर की कमाई की थी। इस व्यक्ति का इतिहास यह भी रहा है कि इन्होंने विश्व के कई देश के शासकों को तहस-नहस करके सत्ता से बेदखल करा दिया। अब भारतीय सत्तारूढ़ दल को यही डर सताने लगा है कि जॉर्ज सोरोस भारतीय राजनीति में घुसकर उसे सत्ता से बेदखल कराने का प्रयास कर रहा है और जिसकी अगुआई भारत में राहुल गांधी और उनकी मां ही करते  हैं साथ ही इसके लिए धन भी वही मुहैया करा रहे हैं। लेकिन, यहीं यह प्रश्न उठता है कि क्या इस बात के पुख्ता सबूत सत्तारूढ़ दल को मिल गया है? यदि उत्तर ‘हां’ में है, तो फिर देर किस बात की? उन सभी को तुरंत गिरफ्तार किया जाना चाहिए और उनपर अदालत में मुकदमा चलाया जाना चाहिए, लेकिन क्या बिना पुख्ता सबूत के सत्तारूढ़ दल ऐसा कर पाएगा या इस मुद्दे को संसद में उठा देना विपक्ष को देश में बदनाम करने का एक सुनियोजित प्रयास है? जो भी हो, मामले की जांच तो अवश्य होनी चाहिए।

सच तो एक दिन देश के सामने आएगा ही, चाहे अडानी समूह के चेयरमैन गौतम अडानी पर लगे आरोप का हो, चाहे सम्भल का जातीय दंगे का या मणिपुर में मानवता को तार-तार करने अथवा जॉर्ज सोरोस का जिनपर भारतीय राजनीति को खतरे में डालने का प्रयास करने का आरोप लगाया जा रहा है। लेकिन, अभी जो समय विपक्ष या सत्तारूढ़ द्वारा जाया किया जा रहा है, उस पर केवल खेद ही जताया जा सकता है। क्योंकि; देश का सामान्य व्यक्ति आवाज उठा सकता है, उस पर उचित कार्यवाही तो राजनीतिज्ञ ही करते हैं या बात न्यायपालिका के पास पहुंच पहुंच जाए, तो न्याय का सर्वोच्च अधिकार उसी के पास है। भारतीय जनता को किसी भी प्रकार तत्काल तो बरगलाया जा सकता है, लेकिन अधिक दिनों तक ऐसा हो नहीं सकता। इससे आप भी सहमत होंगे कि देश दिनोंदिन प्रगति करे और हमारा मान सम्मान विश्व में एक उदाहरण प्रस्तुत करे। ऐसा इसलिए कि देश अब आजादी के बाद से प्रगति के पथ पर आगे बढ़ चुका है, वह पीछे लौटकर देखने वाला नहीं है। कोई कितना भी अपनी रक्षा के लिए कुछ भी करे, देश आगे बढ़ने से रुक नहीं सकता।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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