नीरज कृष्णा (पटना)
Shardiya Navratri : हमारी संस्कृति में देवी दुर्गा का रूप शक्ति, साहस और न्याय का प्रतीक माना जाता है। हर साल हम नवरात्रि में उनकी आराधना करते हैं, उन्हें सजाते हैं, उनका गुणगान करते हैं। लेकिन क्या हम कभी यह सोचते हैं कि दुर्गा का यह रूप क्यों प्रकट हुआ? क्या यह किसी उत्सव की मनचाही सजावट थी? या किसी स्त्री के स्वेच्छा से युद्ध करने का शौक़?
सच्चाई यह है कि दुर्गा का रूप स्त्री की स्वेच्छा नहीं, समाज की मजबूरी से जन्मता है। जब अधर्म इतना बढ़ जाता है कि बाकी सारे देवता हार मान लेते हैं, तब सामूहिक ऊर्जा मिलकर एक शक्ति का रूप धारण करती है — वही शक्ति है दुर्गा। वह क्रोध से उत्पन्न होती है, प्रतिरोध से जन्म लेती है।
आज भी यही हो रहा है। समाज स्त्रियों से सहनशीलता की पराकाष्ठा चाहता है। उनसे अपेक्षा है कि वे घर की मर्यादा बचाएँ, रिश्तों में अपमान सहकर भी चुप रहें। कार्यस्थल पर भेदभाव को नज़रअंदाज़ करें। अन्याय देखकर भी “बात बढ़ाने” से बचें।
लेकिन हर धैर्य की भी एक सीमा होती है। जब यह सीमा टूटती है, तब स्त्री के भीतर की दुर्गा जागती है। उसका क्रोध, उसका प्रतिरोध समाज को असहज करता है, क्योंकि समाज केवल सौम्य, मुस्कुराती हुई स्त्री को देखना चाहता है, जो हाथ जोड़कर आशीर्वाद दे। वह स्त्री जो तलवार उठाए, जो सवाल पूछे, जो व्यवस्था को चुनौती दे — उससे समाज डरता है।
यही कारण है कि हम दुर्गा की मूर्तियों की पूजा तो करते हैं, लेकिन जब कोई स्त्री दुर्गा बनकर अपने अधिकारों के लिए खड़ी होती है, तो उसे विद्रोही, चरित्रहीन या “घर बिगाड़ने वाली” कह देते हैं। हम भूल जाते हैं कि दुर्गा का प्रकट होना किसी की इच्छा नहीं, समय की मांग है।
किसी भी बदलाव की शुरुआत इसी विद्रोह से होती है। यदि स्त्री दुर्गा न बने, तो अन्याय का चक्र कभी टूटेगा नहीं। समाज को यह समझना होगा कि हर स्त्री के भीतर की दुर्गा तभी जागती है जब उसकी मर्यादा, उसकी गरिमा और उसका आत्मसम्मान बार-बार कुचला जाता है। दुर्गा का रूप स्त्री की सहज प्रवृत्ति नहीं, समाज द्वारा थोपी गई अनिवार्यता है।
हमें यह स्वीकार करना होगा कि स्त्री को हमेशा सहनशीलता का प्रतीक बनाकर रखना अब संभव नहीं। आज की स्त्री पढ़ी-लिखी है, आत्मनिर्भर है और अपने अधिकार जानती है। यदि समाज उसे सीता की तरह चुप रहने को मजबूर करेगा, तो वह दुर्गा बनकर व्यवस्था को चुनौती देगी। और यही चुनौती समाज को स्वस्थ और न्यायपूर्ण बनाने के लिए आवश्यक है।
स्त्री जब तक सहती है, वह सीता है। जब वह बोलती है, प्रतिकार करती है, तो वह दुर्गा बन जाती है। समाज को यह समझना होगा कि स्त्रियों को हर बार दुर्गा बनने पर मजबूर करना उसकी अपनी असफलता है — यह संकेत है कि हमने न्याय, सम्मान और सुरक्षा देने में चूक की है।
यदि हम चाहते हैं कि स्त्री फिर से सौम्य, सृजनशील और शांत रहे, तो हमें उसे दुर्गा बनने की नौबत ही न आने दें। नवरात्रि का असली संदेश यही है कि समाज को अपने भीतर छिपे महिषासुर को खत्म करना होगा। तब ही स्त्री अपने भीतर के युद्ध से मुक्त होगी, तब ही दुर्गा का प्रकट होना उत्सव होगा — विवशता नहीं।
