अमरेंद्र किशोर
Sheikh Hasina : बांग्लादेश में इंटरनल क्राइम ट्रिब्यूनल-1 (ICT-1) के हालिया फैसले ने राजनीतिक धरातल पर एक भूचाल खड़ा कर दिया है– पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को 2024 के छात्र-आंदोलन के दौरान मानवता के खिलाफ अपराधों में दोषी ठहराकर मौत की सजा सुनाई गई है। अदालत ने पाया है कि हसीना ने सुरक्षा बलों को ड्रोन, हेलिकॉप्टर और घातक हथियारों के उपयोग का आदेश दिया, प्रतिरोधकारियों पर गोलीबारी कराई गई, घायलों को चिकित्सा सहायता न देने का निर्देश दिया गया और पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्टों में हेरफेर की धमकी भी दी गई। ट्रिब्यूनल ने 81 गवाहों की गवाही और रिकार्ड किए गए ऑडियो सबूतों को निर्णायक माना है।
आरोपों की गंभीरता इस बात में निहित है कि अदालत ने हसीना को सिर्फ एक राजनीतिक नेता नहीं, बल्कि “मास्टरमाइंड और मुख्य वास्तुकार” करार दिया है, जैसे कि यह दमन की एक सुनियोजित रणनीति थी, न कि सिर्फ एक प्रतिक्रिया या असंतुलन। यह निष्कर्ष तभी महत्वपूर्ण है जब यह देखे जाए कि क्या यह न्याय प्रक्रिया सच में निष्पक्ष रही या इसमें राजनीतिक प्रेरणा घुली हुई है।
वास्तव में, निष्पक्षता पर सवाल उठ रहे हैं। हसीना ने इस ट्रिब्यूनल को “राजनीति प्रेरित” और “कंगारू कोर्ट” कहा है। Human Rights Watch ने भी चेतावनी दी है कि मुकदमा उनकी चुनी हुई वकील द्वारा नहीं लड़ाया गया और अंतरराष्ट्रीय मापदंडों से मेल ना खाने की बाधाओं का संकेत दिया है। Amnesty International ने कहा है कि यह फैसला “न्याय नहीं, बल्कि बदला” जैसा लगता है, क्योंकि ट्रिब्यूनल की स्वतंत्रता और रक्षा पक्ष को मुकम्मल तैयारी का समय नहीं मिला।
दूसरी ओर, मोहम्मद यूनुस की भूमिका भी बेहद विवादास्पद हो गई है। उन्हें माइक्रोक्रेडिट और गरीबी उन्मूलन के क्षेत्र में नायकों में गिना जाता आया है, लेकिन अब वे बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के चीफ एडवाइजर हैं। उनके शासन को हसीना और उनके समर्थकों ने तीखा विरोध कहा है। कुछ मीडिया रिपोर्टों में दावा किया गया है कि उन्होंने सरकार में आने के लिए आतंकवादी ताकतों का इस्तेमाल किया है- हालांकि ये आरोप पूरी तरह से प्रमाणित नहीं हैं।
यूनुस की छवि जटिल और द्वैध है। एक ओर, उनका Grameen बैंक मॉडल विकास और गरीबी उन्मूलन में बेहद प्रभावशाली माना जाता था, जिसे वैश्विक स्तर पर सराहा गया। यह आरोप है कि उन्होंने लोकतांत्रिक जनादेश को दरकिनार कर सत्ता हथिया ली, और उनके नेतृत्व में अल्पसंख्यकों, खासकर हिंदुओं पर हमलों में वृद्धि हुई है। कुछ आलोचक कहते हैं कि उनका उदय सिर्फ व्यक्तिगत लक्ष्य पूरा करने का माध्यम नहीं, बल्कि हसीना के नेतृत्व को दूर ले जाने की पुरानी खिन्नसा पर आधारित है।
यहां सत्ता की लड़ाई केवल व्यक्तिगत प्रतिद्वंद्विता से आगे बढ़कर विचारधारात्मक संघर्ष बन जाती है: हसीना का कथित वादा है कि यूनुस अमेरिका-पसंद एजेंडा पर चल रहे हैं, और वे बांग्लादेश की संप्रभुता को “बेच” रहे हैं-सीमाओं, आर्थिक समझौतों और चीन-भारत प्रतिस्पर्धा की रणनीति में। यह दलील गहरे भू-रणनीतिक खतरे की ओर इशारा करती है, न कि सिर्फ घरेलू राजनीतिक झगड़े की।
भारत-बांग्लादेश संबंधों पर इस फैसले का असर बेहद संवेदनशील और कई स्तरों पर जटिल हो सकता है। हसीना का भारत के साथ पुराना और मजबूत रिश्ता रहा है-विशेष रूप से आर्थिक और सुरक्षा सहयोग में। अगर भारत प्रत्यर्पण या हस्तक्षेप जैसा कदम उठाना चाहे, तो यह दोनों देशों की रणनीतिक साझेदारी और भरोसे को हिला सकता है। हालांकि, न्यू दिल्ली ने फिलहाल बहुत सावधानी बरती है: उसने निर्णय को “नोट किया है” और संवाद की बात कही है, लेकिन प्रत्यर्पण के स्पष्ट संकेत नहीं दिए हैं।
इसके चलते, भारत के लिए एक मध्यस्थ के रूप में कदम उठाना न सिर्फ एक अवसर है, बल्कि दायित्व भी बन गया है। भारतीय विदेश नीति के लिए संयमित, निष्पक्ष और संवेदनशील उत्तर देने का समय है-एक ऐसी मध्यस्थता जो बांग्लादेश के लोकतांत्रिक संस्थानों को सम्मान दे और क्षेत्रीय अस्थिरता को बढ़ने न दे।
भारत के लिए सबसे बड़ा चुनौतीपूर्ण प्रश्न है कि वह किस तरह प्रतिक्रिया दे ताकि न केवल बांग्लादेश में स्थिरता बनी रहे बल्कि दोनों देशों के दशकों पुराने रणनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा संबंध भी बिना किसी चोट के आगे बढ़ते रहें। भारत के लिए यह सिर्फ किसी एक नेता—हसीना या यूनुस—का प्रश्न नहीं है, बल्कि यह पूरे क्षेत्र के संतुलन, सीमावर्ती सुरक्षा, व्यापारिक मार्गों, और भारतीय पूर्वोत्तर की स्थिरता का प्रश्न है। इस परिस्थिति में मोदी सरकार का रुख बेहद संवेदनशील, सूझबूझ भरा और कानूनसम्मत होना चाहिए, ताकि भारत “एक राजनीतिक पक्ष” नहीं बल्कि “एक जिम्मेदार पड़ोसी लोकतंत्र” के रूप में देखा जाए।
सबसे पहले भारत को किसी भी नैरेटिव वॉर, मीडिया-आधारित उग्र बयानों या राजनीतिक पक्षधरता से दूरी बनाए रखनी चाहिए। भारत को यह स्पष्ट संदेश देना चाहिए कि वह बांग्लादेश की आंतरिक राजनीति में हस्तक्षेप नहीं कर रहा, बल्कि केवल न्यायिक प्रक्रिया की पारदर्शिता, अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप सुनवाई, और मानवाधिकारों की सुरक्षा की उम्मीद कर रहा है। इससे भारत एक निष्पक्ष, परिपक्व और नियम-आधारित पड़ोसी के रूप में उभरेगा। शेख हसीना भारत की घनिष्ठ सहयोगी रही हैं, लेकिन इसके बावजूद भारत को भावनात्मक या अतीत-आधारित निर्णय लेने से बचना चाहिए। यदि हसीना व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए भारत आना चाहें, तो भारत उन्हें राजनीतिक शरण की जगह “मानवीय सुरक्षित मार्ग” (humanitarian safe passage) दे सकता है, जो अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत अपेक्षाकृत तटस्थ और स्वीकार्य कदम है।
दूसरी ओर, भारत को मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाले अंतरिम प्रशासन से संवाद बनाए रखना अनिवार्य है। यह प्रशासन वैध है या अस्थायी—यह बांग्लादेश की आंतरिक बहस है; लेकिन भारत के लिए सीमा-विस्तृत सुरक्षा, पूर्वोत्तर की स्थिरता, व्यापार, कनेक्टिविटी कॉरिडोर और रोहिंग्या संकट जैसे मुद्दे इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि यूनुस सरकार से दूरी बनाना भारत के दीर्घकालिक हितों को नुकसान पहुँचाएगा। बैक-चैनल डिप्लोमेसी, सुरक्षा एजेंसियों के बीच संचार, और आर्थिक व कूटनीतिक निरंतरता भारत की पहली लाइन ऑफ़ एक्शन होनी चाहिए। इसी के साथ भारत को बांग्लादेश में हिंदू और अन्य अल्पसंख्यकों पर बढ़ते हमलों पर शांत, लेकिन स्पष्ट आवाज उठानी चाहिए, ताकि यह संदेश जाए कि भारत किसी धर्म का पक्ष नहीं बल्कि मानवाधिकारों की रक्षा की मांग कर रहा है।
इस संकट का अंतरराष्ट्रीय पहलू भी उतना ही महत्वपूर्ण है। अमेरिका, चीन और यूरोपीय संघ सभी बांग्लादेश को अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में देखना चाहते हैं; ऐसे में भारत की निष्क्रियता ढाका को किसी एक महाशक्ति की ओर धकेल सकती है। मोदी सरकार को क्षेत्रीय और वैश्विक मंचों पर यह तर्क पेश करना चाहिए कि बांग्लादेश में पारदर्शी न्यायिक प्रक्रिया, राजनीतिक स्थिरता और मानवाधिकार—इन तीनों की रक्षा दक्षिण एशियाई शांति के लिए जरूरी है। भारत SAARC या BIMSTEC फ्रेमवर्क में मध्यस्थता, या संयुक्त राष्ट्र-शैली की ऑब्ज़र्वर व्यवस्था की बात उठा सकता है। इससे भारत की छवि “स्थिरता के एंकर” की तरह मजबूत होगी।
भारत की नीति किसी व्यक्ति के पक्ष या विपक्ष में नहीं बल्कि दीर्घकालिक “स्टेट-टू-स्टेट रिलेशन” पर आधारित होनी चाहिए। भारत को न तो हसीना के पक्ष में उग्र समर्थन देना चाहिए और न ही यूनुस सरकार के प्रति अविश्वास दिखाना चाहिए। सबसे उचित भूमिका यह है कि भारत लोकतंत्र, कानून और क्षेत्रीय शांति की रक्षा करने वाला एक सन्तुलित, जिम्मेदार और परिपक्व पड़ोसी बने-जहाँ भावनाएँ नहीं बल्कि रणनीति, विवेक और विस्तृत कूटनीति भारत का मार्गदर्शन करें।
बेशक, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, यूनुस की छवि पर खरोंच आने की आशनका है। हालांकि वह पहले से ही एक सम्मानित विद्वान और नोबेल पुरस्कार विजेता हैं, लेकिन उनके नेतृत्व में सत्ता में आने और राजनीतिक विरोध का सामना करने के बाद, उनकी प्रतिष्ठा चुनौती का सामना कर सकती है। विशेष रूप से यदि अल्पसंख्यकों या मानवाधिकारों के उल्लंघन की कोई ठोस रिपोर्ट सामने आती है, तो यह उनकी ग्लोबल छवि को प्रभावित कर सकती है।
इस पूरे संकट में गहरे और व्यापक सवाल छिपे हैं- सिर्फ बांग्लादेश का नहीं, बल्कि आसपास के देशों और वैश्विक लोकतांत्रिक व्यवस्था का भी। यह तय करने का क्षण है कि सत्ता संक्रमण किस हद तक न्यायपूर्ण हो सकता है, और एक राष्ट्र अपनी पहचान, इतिहास और भविष्य को कैसे फिर से तैयार करता है।
भारत और अन्य लोकतांत्रिक देश इस जंग में सिर्फ भू-रणनीतिक खिलाड़ी नहीं हो सकते-उन्हें संवैधानिक, मानवतावादी और लोकतांत्रिक भूमिका निभाने वाली ताकत बनना होगा।
