- शिवलाल, शिवचरण मांझी और गुरुजी से दिशोम गुरु कैसे बने शिबू सोरेन!
ShibuSoren : शिबू सोरेन नहीं रहे… लेकिन उनका नाम इतिहास की किताबों में नहीं, लोगो के सीने में लिखा जाएगा..।झारखंड की उस लाल मिट्टी से निकला एक बेटा, जिसने आदिवासियों को पहली बार सिखाया, “डरना नहीं है… सर उठाकर जीना है!”
जंगलों से शुरू हुआ सफर और एक दिन इंदिरा गांधी तक पहुँचा। जब बिहार के सीएम जगन्नाथ मिश्र उन्हें लेकर दिल्ली गए,
तो इंदिरा जी ने कहा, इन्हें “ट्रैक्टर दीजिए… ये अपने लोगों के लिए लड़ेंगे!” और वहीं से शुरू हुआ दिसोम गुरु का वो सफर, जो सत्ता में रहा, लेकिन हमेशा संघर्ष मिट्टी से जुड़ा रहा।
उन्होंने नशाबंदी चलाई, तो अपने ही नाराज़ हो गए…और
वो चुनाव हार गए। शायद उस दिन उन्होंने कहा होगा …
“डुब मरो हड़िया में… अब भगवान भी नहीं बचा सकता!”
आज वो नहीं हैं…लेकिन सवाल बचा है, क्या हम उनकी आग को ज़िंदा रख पाएंगे? या जल-जंगल-ज़मीन यूँ ही सेठ-साहूकारों की बलि चढ़ती रहेगी?
गुरुजी से दिशोम गुरु कैसे बने शिबू सोरेन!
झारखंड की राजनीति में चार दशक से अधिक समय तक ध्रुव तारा की तरह चमकते रहे गुरुजी का निधन हो गया। गुरूजी का शुरुआती जीवन संघर्षों से भरा रहा। 11 जनवरी 1944 को गोला प्रखंड के नेमरा गांव में सोबरन सोरेन के घर जन्मे शिबू सोरेन को बचपन में प्यार से शिवलाल कहकर पुकारा जाता था। लेकिन उनकी प्रारंभिक शिक्षा शिवचरण मांझी के नाम से हुई। शिवचरण के नाम से उन्होंने 1972 में पहली बार जरीडीह से विधानसभा का चुनाव भी लड़ा था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही प्राइमरी स्कूल में हुई। फिर गोला प्रखंड में मौजूद राज्य संपोषित हाई स्कूल में उनके पिता ने नामांकन कराया। जहां आदिवासी छात्रावास में रहकर उन्होंने पढ़ाई को जारी रखा।
किशोरावस्था में ही महाजनों को देने लगे चुनौती
जब उनकी उम्र महज 13 साल थी, तभी एक घटना ने किशोर शिबू सोरेन के जीवन को बदल कर रख दिया। तारीख- 27 नवंबर 1957, जब उन्हें सूचना मिली कि उनके पिता सोबरन सोरेन की महाजनों ने हत्या कर दी है। राजनीति के जानकार बताते हैं कि महाजनों के लड़कों ने एक आदिवासी महिला के खिलाफ अपशब्द कहा था, जिसका विरोध शिबू सोरेन के पिता सोबरन सोरेन ने किया था। यह बात महाजनों को इतनी नागवार गुजरी की साजिश रचकर उनकी हत्या कर दी गई।
पिता की हत्या की घटना ने बदल दी गुरुजी की जिंदगी
गांधीवादी पिता की हत्या ने शिबू सोरेन को भीतर से झकझोर कर रख दिया। उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और महाजनों के खिलाफ फूंक बिगुल दिया। लेकिन महाजनों से लड़ना आसान नहीं था, क्योंकि ग्रामीण महाजनों के कर्ज तले दबे हुए थे। सूद नहीं देने पर जमीन हड़प ली जाती थी। शराब पीलाकर सादे कागज पर अंगूठे का निशान ले लिया जाता था। इन घटनाओं ने शिबू सोरेन को आंदोलन खड़ा करने का रास्ता दिखा दिया। उन्होंने आवाज बुलंद करनी शुरू की तो लोग जुड़ने लगे। इसी दौरान शिबू सोरेन ने शराब और हड़िया के सेवन के खिलाफ ग्रामीणों को जागरूक करना शुरु किया।
टुंडी के आंदोलन से मिली पहचान
अपनी जन्म भूमि गोला के बाद उनको पेटरवार, जैनामोड़, बोकारो और धनबाद में लोग जानने लगे थे। इनके समाज सुधार आंदोलन और महाजनी प्रथा के खिलाफ उलगुलान को बड़ी पहचान मिली धनबाद के टुंडी में, यहां 1972 से 1976 के बीच उनका आंदोलन जबरदस्त रुप से प्रभावी रहा। वह महाजनों द्वारा हड़पी गई जमीन आदिवासियों को वापस कराने में सफलता हासिल करने लगे थे।
शिबू सोरेन की एक आवाज पर हजारों की संख्या में आदिवासी समाज के लोग तीर-धनुष के साथ जुट जाते थे। एक आह्वान पर हड़पी गई खेतों में लगी फसल काट ली जाती थी। टुंडी के पोखरिया में उन्होंने एक आश्रम बनाया था, जिसे लोग शिबू आश्रम कहते थे। इसी दौरान लोग प्यार और सम्मान से उनको गुरुजी कहने लगे। लेकिन गुरुजी को राजनीतिक पहचान मिली संथाल की धरती पर यहीं से उनको दिशोम गुरु यानी देश का गुरु कहा जाने लगा।
