Bharat : भारतीय विदेश नीति के संतुलन की परीक्षा

Bindash Bol

प्रमोद जोशी

Bharat : तालिबान के विदेशमंत्री की मेज़बानी की तैयारी कर रहे भारत ने ट्रंप की योजना का विरोध करके एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है। हालाँकि हमने अभी तक तालिबान शासित अफ़ग़ानिस्तान को आधिकारिक मान्यता नहीं दी है, पर धीरे-धीरे संबंध स्थापित कर लिए हैं। संयुक्त वक्तव्य में एक और महत्वपूर्ण बात कही गई है, ‘क्षेत्रीय संपर्क प्रणाली में अफगानिस्तान के सक्रिय एकीकरण का हम समर्थन करते हैं।’ भारत के नज़रिए से अमेरिका के लिए यह एक संदेश है, जिसने ईरान में चाबहार बंदरगाह पर प्रतिबंधों में छूट हटा ली है, जिसका इस्तेमाल भारत के अफगानिस्तान से संपर्क के लिए किया जाता रहा है।

इस घटनाक्रम के समांतर कुछ और बातों पर गौर करें। पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष आसिम मुनीर ने डॉनल्ड ट्रंप के साथ व्यक्तिगत रूप से मधुर संबंध बना लिए हैं। हाल में उन्होंने ट्रंप के सामने अरब सागर में एक बंदरगाह बनाने और उसे चलाने का प्रस्ताव पेश किया है। यह बंदरगाह बलोचिस्तान के ग्वादर जिले के एक शहर पासनी में होगा, जो ईरान में भारत द्वारा विकसित किए जा रहे चाबहार बंदरगाह के एकदम करीब होगा। पिछले महीने पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष ने प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ के साथ वाइट हाउस में ट्रंप के साथ बंद कमरे में बैठक की थी।

अब खबर है कि पाकिस्तान ने अमेरिका को कुछ खनिजों की खेप भेजी है। उनका कहना है कि हम अमेरिका को रेअर अर्थ जैसे खनिज दे सकते हैं, जिनकी अमेरिका को बड़ी ज़रूरत है। हाल में एक और खबर आई है। अमेरिका ने पाकिस्तान को दो नए हथियार बेचने की मंजूरी दे दी है। ये हैं नवीनतम एम-120सी-8 और डी-3 एमरैम मिसाइलें। पाकिस्तान ने 2019 में अभिनंदन वर्धमान के विमान पर एमरैम मिसाइल ही दागी थी।

पता नहीं अमेरिका पासनी में बंदरगाह बनाएगा या नहीं, पर इन रिश्तों की जटिलता को समझने के लिए चीन को भी शामिल करना होगा। सवाल केवल भारत का ही नहीं है, बल्कि यह भी है कि पाकिस्तान अब अमेरिका और चीन के साथ रिश्तों को किस तरह निभाएगा? क्या वह चीन से दूर हो जाएगा? क्या अमेरिका भी चीन के साथ सामरिक-रिश्तों में सुधार कर रहा है? अभी तक वह सीपैक और ग्वादर का विरोध करता था, क्या वह अब ग्वादर को स्वीकार कर लेगा?

इसके साथ ही एक सैद्धांतिक प्रश्न भी सामने आया है। हाल में अमेरिका ने भारत और पाकिस्तान को फिर से तराजू पर बराबरी से तोलना शुरू कर दिया है। एक दशक पहले उसने भारत और पाकिस्तान को ‘डिहाइफ़नेट’ करने की नीति बनाई थी, जिससे वह बराबरी खत्म हो गई थी, पर अब वह नीति खत्म हो रही है और पुरानी नीति वापस आ रही है। हाल में जेएनयू में हुए अरावली शिखर सम्मेलन में विदेशमंत्री एस जयशंकर ने ऐसे सवालों के कुछ दिलचस्प स्पष्टीकरण दिए हैं।

जयशंकर ने ‘डिहाइफ़नेशन’ की अवधारणा पर रोशनी डाली। उन्होंने कहा, हम पड़ोसियों की चुनौती से बच नहीं सकते, चाहे वास्तविकता कितनी भी अप्रिय क्यों न हो। सबसे अच्छा रास्ता यही है कि भारत शक्ति और क्षमता के मामले में दूसरे पक्ष से आगे निकले। यानी कि भारत की ताकत, अर्थव्यवस्था और वैश्विक प्रभाव में वृद्धि इतनी महत्वपूर्ण होनी चाहिए कि ऐतिहासिक समानता या तुलना प्रासंगिक न रहे। 1970 के दशक में भारत-पाकिस्तान की समतुल्यता को वैश्विक स्तर पर स्वीकार किया जाता था। अब कोई भी इस तरह की बात नहीं करता। कुछ देश क्षेत्रीय तनावों का फायदा उठाने या अपने फायदे के लिए भारत को अन्य शक्तियों के साथ ‘संतुलित’ करने की कोशिश करते हैं।

उन्होंने अमेरिका और चीन के अलग-अलग दृष्टिकोणों का उल्लेख किया: अमेरिका साझेदारी में राष्ट्रीय हितों से प्रेरित है, जबकि चीन संक्रमणकालीन दौर से गुज़र रहा है जहाँ उसके दृष्टिकोण पूरी तरह से स्थापित नहीं हुए हैं। उधर यूरोप में भू-राजनीतिक संतुलन में आए बदलावों की ओर भी ध्यान दें, जहाँ अमेरिका-रूस-चीन सुरक्षा और व्यापार को लेकर पहले की स्थिर व्यवस्थाएँ अब बदल रही हैं।

इन सब बातों के साथ ही पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त अजय बिसारिया की बात पर ध्यान दें, जिन्होंने हाल में एक कॉनक्लेव में कहा, डॉनल्ड ट्रंप अंततः इस्लामाबाद से निराश हो जाएंगे और वर्तमान में संबंधों में जो गर्मजोशी दिख रही है, वह जल्द ही खत्म हो जाएगी। उनके अनुसार चीन की शह पर पाकिस्तान वैश्विक पहुँच और अमेरिका के साथ संबंध बनाने की कोशिश कर रहा है। ऑपरेशन सिंदूर के दौरान चीन और पाकिस्तान की मिलीभगत से यह बात साफ़ ज़ाहिर होती है कि चीन उसका ‘मुख्य गॉडफादर’ है।

पाकिस्तान अभी चीन और अमेरिका के साथ इन जटिल लेन-देनों को संभाल रहा है, लेकिन समय के साथ इस संतुलन को बनाए रखना उसके लिए और भी मुश्किल होगा। बहरहाल भारतीय विदेश-नीति के संतुलनकारी पक्ष की इस समय परीक्षा है। आने वाले समय में भारत को चीन, अमेरिका और रूस तीनों के प्रतिस्पर्धी के रूप में उभरना है। यह काम अगले दस वर्षों में होगा। इसलिए आज की राजनीति बहुत महत्वपूर्ण है।

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